तंत्र के अनुसार नर-नारी रति के भेद
==================
तंत्र
में रतिक्रीड़ा का बहुत महत्व है |यहाँ शारीरिक रति को महत्व नहीं दिया जाता |तंत्र
ऊर्जा तरंगों की रति को महत्व देता है ,जिसके भावों में प्रत्येक बार अंतर होता है
और भावो के अनुसार ऊर्जा तरंगें भी भिन्न होती हैं |तंत्र का मानना है की एक जोड़े
की विभिन्न समय में की गयी एक ही प्रकार की रति के प्रकारों में अंतर होता है
|तंत्र में रति को विभिन्न दृष्टियों से विभिन्न प्रकारों में विभाजित किया गया और
तदारुरूप उनके गुण-दोषों को
परिभाषित किया गया है |
१.आत्मिक रति
============जब
कोई स्त्री-पुरुष का जोड़ा एक दुसरे
के प्रति उदात्त आकर्षण से युक्त होता है और दोनों एक दुसरे के प्रति प्रगाढ़
आत्मिक सम्बन्ध की अनुभूति करते हैं ,तो उन दोनों में एक आत्मिक सम्बन्ध बन जाता
है |वस्तुतः यह आत्मिक सम्बन्ध विशुद्ध चक्र की ऊर्जा तरंगों द्वारा बनता है |ऐसे सम्बन्ध
भाव से एक-दुसरे के आकर्षण में
व्याकुल स्त्री-पुरुष जब अपने
प्रियतम और प्रिया के प्रणय भाव में सुधि विहीन हो जाते हैं ,तो यह आत्मिक रति
कहलाता है |इस रति में शारीरिक मिलाप हो यह आवश्यक नहीं है |यह स्त्री-पुरुष के दूर-दूर रहने पर भी होती है |इस रति में केवल ऊर्जा तरंगें एक दुसरे की ऊर्जा
तरंगों को प्रभावित करती हैं और उनमे ही रति होती है
|
२.मानव रति
=========
इस रति में भी पहले विशुद्ध चक्र की तरंगों का मिलन होता है और युवक -युवती एक
दुसरे के प्रति उदात्त प्रेम भाव के क्रीड़ा करते हैं ,परन्तु बाद में मूलाधार की
ऊर्जा की तीव्रता बढ़ जाती है और रति शारीरिक स्तर पर होने लगती है |ऐसी रति भी तभी
संभव है जब स्त्री- पुरुष का एक दुसरे के प्रति अपनापन और प्रेम हो |इसमें आपसी
स्वार्थ और शारीरिक संतुष्टि के लिए रति को शामिल नहीं माना जाएगा ,उनका वर्गीकरण
भिन्न प्रकार से होता है और वह या तो कृत्रिम रति होती है या पशु रति |जिनके बारे
में आगे लिखा जायेगा |
३.राक्षस रति
===========
इस रति में पुरुष कामुक होकर पशु भाव से नारी के साथ छेड़छाड़ करता है और उसकी इच्छा
के विपरीत उससे रति करता है इसमें नारी को अत्यधिक कष्ट होता है |यह रति राक्षस
रति है |आज के युग के अनुकूल शब्दों में यह बलात्संग है |इस बलात्संग के अंतर्गत
पति-पत्नी की रति भी है |यदि पत्नी
की इच्छा न हो और पति जबरदस्ती रतिक्रिया करे |यह रति आज आम हो रही है |इसका कारण
विवाह हो जाना किन्तु मानसिक तालमेल और आकर्षण न उत्पन्न हो पाना होता है |कभी कभी
पत्नी के कोई राज खुलने पर पति इस तरह से भी उसके प्रति कठोर हो जाता है ,जबकि वह
अपनी भावना न व्यक्त करता है न कहता है |
४.मानसिक रति
============ इस रति में स्त्री ,पुरुष के साथ और पुरुष
,स्त्री के साथ मानसिक रूप से रति करते हैं ,पर शारीरिक मिलाप नहीं होता |जैसे कोई
पुरुष किसी युवा कामिनी को देखकर उसके प्रति कामभाव से युक्त हो जाता है |वह
स्त्री उसे प्राप्य नहीं है ,यह वह जानता है ,परन्तु वह अपनी कामना के वशीभूत कोकर
मानसिक स्तर पर उससे कल्पना में शारीरिक रति करता है |कोई युवती किसी पुरुष के
प्रति कामासक्त है ,परन्तु वह लज्जा या सामाजिक मर्यादा के कारण उससे शारीरिक रति
नहीं कर सकती |तब वह कल्पना की शारीरिक रति करती है |ऐसी रति में दुसरे पक्ष की
स्वीकृति की आवश्यकता नहीं होती |पर यदि दोनों पक्ष ऐसी रति में एक ही समय में एक-दुसरे के प्रति मानसिक रति में निमग्न हों ,तो
दोनों का रति सुख बढ़ जाता है और खिन्नता या उदासी या निस्तेजता का प्रकोप नहीं
होता |स्वप्न दोष ,स्वप्नक्रीडा आदि ऐसी ही रति के परिणाम हैं |जब पुरुष या स्त्री
किसी के प्रति कामासक्त हो मानसिक रति में निमग्न हो ,उसी समय दूसरा पक्ष अगर नफ़रत
की भावना रखे तो सुख प्राप्ति में कमी आती है और बार बार मन भटकता है |यह उच्च
स्तर की मानसिक तरंगों का विज्ञान है |
5.पशु रति
======= शुद्ध कामुक भाव से जब पुरुष ,नारी के साथ
कामुक छेड़छाड़ करके उसे उत्तेजित करता है और दोनों शारीरिक सुख की प्राप्ति के लिए
रति करते हैं तो यह पशु रति है |पशुओं में भी यही प्रवृत्ति होती है |वे इसे शारीर
तक ही सीमित रखते हैं |इसका मानसिक आनंद नहीं उठाते |यह रति रतिकाल में ही क्षणिक
सुख देती है ,वह भी पशु सुख ही होता है |इसकी समाप्ति के बाद आलस्य ,प्रभावहीनता
,खिन्नता आदि का प्रकोप होता है |आज के समय में अधिकाँश युवक -युवतियों में पशु
रति ही होती है ,जो जब भी ,जहाँ भी शारीरिक संतुष्टि मात्र के लिए रति कर लेते हैं
|अधिकतर विवाहेत्तर संबंधों के मूल में भी पशु रति ही होता है |यहाँ तक की आपसी
मानव रति भी कम ही देखने को मिलता है ,,देव रति ,ब्रह्म रति तो आज काल्पनिक ही
लगते हैं ,यद्यपि यह भी होते हैं कुछ जोड़ों में ,जरुरी नहीं की वह पति-पत्नी ही हों |
६. कृत्रिम रति
==========
कृत्रिम
उपायों से की गई रति ,कृत्रिम रति है |पशुओं में सम्पूर्ण प्रवृत्ति प्रकृति
प्रदत्त रूप से आज भी क्रिया शील है |उन्हें काम उद्वेग सताता है ,तो वे किसी भी
विपरीत लिंगी से रति कर लेते हैं |परन्तु मनुष्य ने स्वयं को अनेक कृत्रिम
,सामाजिक एवं नैतिक नियमो में बाँध रखा है |वह न तो जीवन यापन आदि व्यापारों में
इच्छानुकुल व्यवस्था कर पाने में समर्थ है न ही वह रति क्रिया को यथावत पूर्ण करने
में समर्थ है |विश्व के अनेक समाजों में नारी-पुरुष किसी के प्रति काम भाव से आकृष्ट होने पर उससे अभिसार की प्रार्थना
के सकने के लिए स्वतंत्र हैं ,किन्तु भारतीय संस्कृति में ऐसा सोचना भी घोर अनैतिक
समझा जाता है |इस स्थिति में यहाँ के युवक -युवतियों के साथ घोर समस्या कड़ी हो
जाती है |सामाजिक विसंगतियों एवं भौतिक प्रतिस्पर्घा के इस युग में पुरुष ३५-४० वर्ष तक स्त्री ३० वर्ष तक कुँवारी रहने लगी
है |जबकि दोनों में काम भाव का प्रादुर्भाव १६ एवं १३ वर्ष में प्रारंभ हो जाता है
|साथ ही वातावरण, उत्तेजक द्रश्य ,रोमांटिक कहानियां ,सहशिक्षा का उसृन्खल वातावरण
,टी वि ,सिनेमा आदि इनमे १२-१४ वर्ष
में भी सब समझा देते हैं और यह उग्र काम भाव से ग्रस्त होने लगते हैं |इस स्थिति
में भारतीय वर्जनाओं से इन्हें प्राकृतिक उपायों द्वारा रति की प्राप्ति संभव नहीं
होती फलतः किशोर-किशोरी मन की
उत्तेजना को शांत करने के लिए कृत्रिम उपायों का अवलंबन करने लगते हैं |
इस
प्रकार की रति एक पक्षीय होती है |इससे अनेक हानि होती है |रतिक्रिया में जो
पारस्परिक ऊर्जा रति होती है उससे शारीर एवं मन को एक विशिष्ट संतुष्टि मिलती है
|इस रति में स्खलन के बावजूद भी व्यक्ति असंतुष्ट ही रहता है |इसके साथ मन का
अपराध बोध उसे भयभीत करके विक्षुब्ध ,खिन्न और ग्लानी से युक्त कर देता है |जो
शारीरिक कमी आती है वह अलग से ,क्योकि अप्राकृतिक रगड़ से परिवर्तन विकृत कर देते
हैं |लड़कियां इस ग्लानी के साथ भयभीत भी रहती हैं की कहीं शादी के बाद वे इसी कारण
अपने पति की घृणा या तिरस्कार की पात्र न बन जाएँ ,कुछ मामलो में ऐसा होता भी है
|शादी के बाद भी यह आदतें जल्दी नहीं छुटती |कृत्रिम रति में हाथ ,उंगली या रबड़ के
उपकरणों का जो प्रयोग किया जाता है ,वह प्रकृति प्रदत्त अंगों जैसे नहीं होते
|फलतः युवा होते होते लड़कों की नसों में विकृति आ जाती है ,असंतुलित दबाव और स्थान
विशेष पर पड़ने वाले रगड़-दबाव के
कारण लिंग में टेढ़ापन आ जाता है ,साथ की आकार और आकृति भी असंतुलित हो जाती है ,जो
बाद में स्त्री की असंतुष्टि का कारण बनती है |इसके साथ ही वीर्य उत्पन्न करने
वाले धातु तत्वों की कमी हो जाती है |अत्यधिक और असंयमित ,समय पूर्व हार्मोन के
शोषण से वीर्य पतला और शुक्र विहीन हो जाता है |यह स्थिति भावी दाम्पत्य जीवन को
नरक बना देती है |लड़कियों में भी कृत्रिम उपकरणों अथवा अंगुली प्रयोग के कारण योनी
में व्रण ,धातु व्रण [कीड़े] ,छिलना
,रति तंतुओं की संवेदन शीलता [योनी में] कम होना ,गर्भाशय के मुख का क्षति ग्रस्त
होना आदि समस्याएं उत्पन्न होती है |इसके साथ ही असामयिक और अनियमित रति से इनमे
भी हारमोन का बैलेंस बिगड़ जाता है जो बड़े होने पर बहुत सी समस्याओं का कारण बनता
है ,समय पूर्व शरीर फैलना ,कमर -जाँघों के दर्द ,अनियमित मासिक चक्र ,संतान
सम्बन्धी समस्याएं ,रति में असंतुष्टि ,कम उम्र में रति से मन उचटना या अक्षमता
आदि हो सकता है |सामान्यतया पाया जाता है की कृत्रिम उपकरणों के प्रयोग के बाद
,पुरुष संसर्ग में ऐसी युवतियों को संतुष्टि नहीं मिलती ,क्योकि उनकी संवेदनशीलता
कम हो चुकी होती है |
हमारे
पास ऐसे बहुत से मामले आते रहते हैं ,जिनमे अधिकतर लड़कियों या नवा विवाहिताओं के
होते हैं ,बहुत से लड़के शादी के पूर्व भयभीत हुए आते हैं |कुछ पुरुष भी विवाह बाद
आते हैं |इनकी एक ही आशंका होती है ,शादी के पूर्व का जीवन या ये कृत्रिम रति
क्रियाएं उनके शादी शुदा जीवन का अभिशाप तो नहीं बन जायेंगी |इन समस्याओं के या आई
हुई विकृतियों के उपाय तो तंत्र में हैं ,पर यह कुछ कठिन भी होते हैं जिन्हें
पुरुष तो कर लेते हैं पर सामाजिक मान्यातायुक्त युवती करना नहीं चाहती और कष्ट
पाती रहती है |आदतों का इलाज तो मानसिक बल से ही संभव होता है |
[७] ब्रह्म रति
========== एक दुसरे को आराध्य मानकर परम अलौकिक आनंद के
लिए जब युवक-युवती आपस में किल्लोल
करते हुए रति क्रिया करते हैं और रति क्रीडा की अवस्था में परमानंद की अनुभूति
करते हैं ,तो उसे ब्रह्म रति कहते हैं |इस रति में प्रारम्भ में विशुद्ध चक्र की
तरंगे उदात्त होती हैं ,फिर ये तरंगे मूलाधार की तरंगों से मादकता में आवेशित होती
हैं और फिर इनके द्वारा की गयी धन-ऋण
की रति में सहस्त्रार की तरंगों मर उद्दीपन होता है |इस प्रकार की रति सिद्ध पुरुष
ही कर सकते हैं |नारी को भी इसके लिए सिद्ध साधक के शिष्यत्व में अभ्यास करना पड़ता
है |यह रति ,रति की उच्च अवस्था होती है ,जिससे सहस्त्रार के उद्दीपन से उसके
खुलने ,मूलाधार से सहस्त्रार तक एक साथ कम्पन और कुंडलिनी का चलायमान होना होता है
|भैरवी साधना में भी यह उच्च अवस्था है ,यहाँ भाव ,प्रेम ,काम भावना सब कुछ
तीब्रतम हो सहस्त्रार को कम्पित कर देता है |
[८] अप्राकृतिक रति
============= जैसा की हम अपने पिछले पोस्ट कृत्रिम रति में
बता आये हैं की आज के समय के परिवेश ,माहौल में कृत्रिम रति से युवा जीवन बर्बाद
कर रहे हैं |इसी तरह आज अप्राकृतिक रति भी बढ़ गयी है |किशोर-किशोरी किसी भी संगती में पड़कर समलैंगिक रति
करने लगे हैं |इसमें लड़के ,लड़कों के साथ और लड़कियां अपनी सहेली या किसी समवयस्क
लड़की को पार्टनर बना लेती हैं |यह कामुकता के भाव की एक विकृत अवस्था है |ऐसे लड़के
युवा होने पर ,किसी युवती से रति करना पसंद नहीं करते |उन्हें समलिंगी से
कामोत्तेजना संतुष्ट करती है |इसी प्रकार ऐसी लड़कियां भी पुरुष के प्रति
कामोत्तेजित नहीं होती |उन्हें लड़कियों से ही संतुष्टि मिलती है |यह प्राकृतिक
नियमो और प्रकृति की ऊर्जा संरचना के विरुद्ध है |फलतः इससे उनमे अनेक विकृतियों
का उदय होता है और शारीरिक ऊर्जा समीकरण में परिवर्तन भविष्य में अनेक समस्याएं
उत्पन्न करता है |तब जब इनका कोई उपयुक्त निराकरण नहीं मिलता |
[९] देव रति
========
इस रति में पहले विशिद्ध चक्र की तरंगें तीव्रतम होती हैं ,फिर मूलाधार की तरंगें
उत्पन्न होती हैं |इनकी धनात्मक एवं ऋणात्मक रति में विष्णु चक्र प्रदीप्त होता है
|ऐसी रति तभी संभव है ,जब युवक-युवती
एक-दुसरे के प्रति उदात्त भाव के
प्रणय से युक्त हों |वे एक -दुसरे को समीप पाकर सुध-बुध खोकर आत्मिक अपनत्व का अनुभव करते हैं |
[१०] पैशाचिक रति
=============
पैशाचिक रति उस रति को कहते हैं ,जिसमे किसी ऐसे पात्र से रति की जाती है ,जो रति
के उपयुक्त नहीं है |जैसे कच्ची उम्र की बालिका ,कच्चे उम्र का किशोर ,मानसिक रूप
से विकृत ,बीमार ,उद्विग्न ,भयभीत आदि |
[११] स्पर्श रति
========== जब
स्त्री पुरुष को या पुरुष स्त्री के शरीर को स्पर्श करके कामसूत्र की प्राप्ति
करता है ,तो वह स्पर्श रति कहलाती है |इसमें लैंगिक रति नहीं होती |न ही
चरमोत्कर्ष होता है |यह शुद्ध रूप से ऊर्जा रति है |इसलिए वाम मार्गी रति में इस
रति का महत्व सर्वाधिक है |भैरवी विद्या के शुरू के चरण में इस रति को मुख्य रखा
जाता है |प्रबल आकर्षण उत्पन्न करने में सहायक यह रति स्पर्श तक सीमित रहती है
किन्तु यह दो आत्माओं में बहुत तीब्र ऊर्जा रति उत्पन्न करती है |वह एक दुसरे में
खो जाते हैं |उर्जाओं की यह तीब्रता चक्र क्रियाशीलता में अति सहायक होता है |
तांत्रिक अभ्यासों में कृत्रिम रति
,अप्राकृतिक रति ,राक्षस रति ,पैशाचिक रति का कोई स्थान नहीं है |इन्हें केवल साधक
को इसलिए बताया जाता है की वह ऐसी गलती या आचरण कभी न करें |अघोर तंत्र की डाकिनी
सिद्धि में पशु रति का महत्त्व है किन्तु यह स्थिति क्रमशः आत्मिक रति ,स्पर्श रति
,देव रति ,मानव रति के क्रम में वहां तक पहुचती है ,अतः वहां तक आते आते इसका
स्वरुप और भावना बिलकुल परिवर्तित हो चुकी होती है |यह एक ही रति अभ्यास में
परिवर्तित होता चला जाता है |अंध पशु भाव के रतिकाल में बुद्धि, ज्ञान ,विवेक ,विचार ,स्वयं की अनुभूति आदि का
लोप हो जाता है |ऐसे समय में जो अचानक ही इसे रोककर शिवत्व में लींन हो जाए ,वही
सिद्ध है ,का सिद्धांत ही इस रति के महत्त्व का कारण है |.....................................................हर हर महादेव
No comments:
Post a Comment