हम रोज पूजा -आराधना -साधना -अनुष्ठान करते रहते हैं ,अपने ईष्ट या कामनानुसार देवता को बुलाने के लिए |अक्सर असफलता मिलती है ,कभी -कभी पूर्ण सालता मिल जाती है |कभी कुछ अनुभव तो होता है पर विशेष उपलब्धि सोचने पर दिखती नहीं ,कभी कभी बहुत समय तक यथास्थिति बनी रहती है कोई परिवर्तन महसूस नहीं होता |कभी परिवर्तन न दिखने पर विश्वास भी हिल जाता है की वास्तव में कुछ है या नहीं ,या सब झूठ ही कहा और लिखा गया है |
हम आपसे कहना चाहेंगे की सब सत्य लिखा और कहा गया है ,ईश्वर मिल सकता है ,वह आ सकता है ,उसे बुलाया जा सकता है ,पर सब कुछ मानसिक स्थिति पर निर्भर होता है ,मंत्र-उपाय-कर्मकांड-मुहूर्त-वातावरण सब केवल सहायक मात्र होते हैं |मुख्य भूमिका मानसिक स्थिति की होती है |ईश्वर मानसिक तरंगों और मानसिक ऊर्जा के आकर्षण से जुड़कर आता है ,अन्य सभी कुछ उसकी ऊर्जा को बढ़ाने अथवा उसे रोकने-सग्रहित करने के माध्यम होते हैं |मानसिक तरंगें निश्चित दिशा और निश्चित भाव -गुण में न लिप्त हों तो ईश्वरीय ऊर्जा उससे नहीं जुड़ पाती |फिर चाहे वर्षों तक जप किये जाते रहें कोई परिणाम नहीं मिलने वाला |
ईश्वर को बुलाना आसान है किन्तु सबसे मुश्किल उसके आने पर उसे संभालना ही होता है ,नियंत्रित करना और अपने से जोड़े रखना ही होता है |जब आप किसी निश्चित भाव-गुण-आकृति के ईष्ट में डूबते हैं ,पूर्ण एकाग्रता के साथ उसके मंत्र का जप करते हैं ,सम्बंधित सामग्री का उपयोग करते हैं तो इन सब के संयोग और मानसिक ऊर्जा से उत्पन्न तरंगो का प्रक्षेपण वातावरण में होने लगता है ,जिसके फलस्वरूप सामान प्रकृति की ऊर्जा आकर्षित होने लगती है और उसका संघनन साधक के आसपास होने लगता है ,अर्थात वह ईश्वर आने को उद्यत होने लगता है |अब सबसे महत्वपूर्ण हो जाता है की क्या साधक की मानसिक-शारीरिक स्थिति उसे सँभालने की है |
साधक बेहद भावुक और भीरु ह्रदय है ,अपनी आवश्यकतापूर्ती के लिए साधना काली की करने लगा ,काली की ऊर्जा का अवतरण हो गया और साधक अपने स्वभावानुसार डर गया या रोने लगा ,उसकी हिम्मत जबाब दे गयी उनके भयानक ऊर्जा को महसूस करके ,अथवा उसकी शारीरिक स्थिति कमजोर है और वह काली की ऊर्जा को सहन करने लायक ही नहीं है |ऐसे में साधक की ह्रदय गति रूक सकती है ,शारीरिक ऊर्जा संरचना या पावर सर्किट नष्ट हो सकता है ,मानसिक संतुलन बिगड़ सकता है |अथवा वह भावुकता में बहने लगा ,ऐसे में काली की ऊर्जा उससे जुड़ ही नहीं पाएगी और पुनः बिखर जायेगी ,व्यक्ति असफल हो जायेगा |ऐसा भी होता है की यदि स्वभाव में अति कोमलता है और काली की उग्र साधना कर रहे हों तो वह शक्ति साधक की और आकर्षित ही न हो |काली के लिए तो उग्र ,मजबूत, तामसिक भाव होना चाहिए ,शारीरिक रूप से मजबूती रखनी चाहिए ,हिम्मत होना चाहिए ,भय बिलकुल नहीं होना चाहिए |
इसी प्रकार अगर मानसिक भाव का संतुलन साधित की जाने वाली शक्ति से नहीं बैठता तो वह शक्ति आकर भी साधक से नहीं जुड़ पाती ,क्योकि उसे अपने अनुकूल मानसिक भाव नहीं प्राप्त होता है |जिस शक्ति या ईष्ट की साधना की जा रही हो उसके अनुकूल वातावरण के साथ ही उसके अनुकूल मानसिक भाव भी होना चाहिए ,,तदनुरूप शारीरिक स्थिति और ह्रदय की स्थिति भी बनानी होती है ,तभी सम्बंधित शक्ति आकर जुड़ पाती है |अक्सर साधना-अनुष्ठान करने पर सम्बंधित कार्य तो हो सकता है ,पर सम्बंधित शक्ति जुडी रह जाए जरुरी नहीं होता |यह सामान्य काम्य अनुष्ठानों में होता है ,जबकि व्यक्ति यदि ध्यान दे तो यहाँ भी आने वाली शक्ति जुडी रह सकती है |शक्ति विशेष की साधना में भी अक्सर सम्बंधित शक्ति नहीं जुड़ पाती साधक से फलतः असफलता मिलती है या कम सफलता मिलती है |इसका भी कारण आई हुई शक्ति को उसकी प्रकृति -गुण-स्वभाव के अनुसार स्थान न दे पाना या नियंत्रित न कर पाना होता है |
ईष्ट या शक्ति तो साधना प्रारम्भ होते ही आकर्षित होने लगता है ,पर जुड़ता वह भाव और शक्ति के अनुसार ही है |उसे आने पर संभालना और यथायोग्य स्थान देना ही मुश्किल होता है |यही सबसे अधिक गुरु की आवश्यकता होती है |साधना-पूजा-अनुष्ठान तो बहुतेरे करते हैं पर सफलता बहुत कम को ही मिल पाती है ,क्योकि उचित पद्धति-मार्गदर्शन और जानकारी का ही अभाव होता है |दिशा कोई ,शक्ति कोई, भाव कोई होता है |इनमे आपसी तालमेल नहीं होता |फलतः कहते मिल जाते हैं इतना किया कुछ नहीं हुआ |मंत्र-पद्धति-मुहूर्त-सामग्री-कर्मकांड पुस्तकों में मिल जाते हैं ,पर आई शक्ति को संभालें कैसे यह पुस्तक नहीं बता पाते ,इसके लिए योग्य गुरु की आवश्यकता होती है |पुस्तकें तो पुराने शास्त्रों को खोजकर लिख दी जाती है ,पर लिखने वाले साधक हों बहुत मुश्किल होता है ,साधक पुस्तकें नहीं लिखता |लिखने वाला अगर साधक हुआ भी तो विषयवस्तु की गोपनीयता के कारण यह नहीं बता सकता की कैसे आई ऊर्जा या शक्ति को संभालें या नियंत्रित करें |
आज के समय में अधिकतर की असफलता का यही कारण है की ऊर्जा तो पुस्तकों को पढ़कर ,मंत्र जपकर ,अनुष्ठान करके बुला ली जाती है पर उसे संभाले कैसे ,उसे नियंत्रित कैसे करें ,उसे कैसे स्थान दें अधिकतर नहीं जानते |बताने वाला नहीं मिलता |जो मिलते हैं खुद आधे-अधूरे ज्ञान वाले स्वयंभू ज्ञानी होते हैं |फलतः आई ऊर्जा बिखर जाती है |अनुष्ठान -साधना पर भी अपेक्षित परिणाम नहीं दीखता |अतः इस हेतु सद्गुरु खोजना ही सबसे पहले जरुरी होता है |इसीलिए गुरु को सर्वाधिक महत्व दिया गया है साधना क्षेत्र में |वही बताता है की कैसे और कब किस उर्जा को किस प्रकार नियंत्रित किया जाए ,जिससे वह आपके लिए कल्याणकारी हो सके ,आपके साथ जुड़ सके |वही बताता है की आपको किस प्रकार की उर्जा की आवश्यकता है ,आप किसे संभल पाएंगे ,आपकी प्रकृति के अनुकूल कौन है |किससे आपका कल्याण संभव है |.[व्यक्तिगत विचार ]................................................................हर-हर महादेव
हम आपसे कहना चाहेंगे की सब सत्य लिखा और कहा गया है ,ईश्वर मिल सकता है ,वह आ सकता है ,उसे बुलाया जा सकता है ,पर सब कुछ मानसिक स्थिति पर निर्भर होता है ,मंत्र-उपाय-कर्मकांड-मुहूर्त-वातावरण सब केवल सहायक मात्र होते हैं |मुख्य भूमिका मानसिक स्थिति की होती है |ईश्वर मानसिक तरंगों और मानसिक ऊर्जा के आकर्षण से जुड़कर आता है ,अन्य सभी कुछ उसकी ऊर्जा को बढ़ाने अथवा उसे रोकने-सग्रहित करने के माध्यम होते हैं |मानसिक तरंगें निश्चित दिशा और निश्चित भाव -गुण में न लिप्त हों तो ईश्वरीय ऊर्जा उससे नहीं जुड़ पाती |फिर चाहे वर्षों तक जप किये जाते रहें कोई परिणाम नहीं मिलने वाला |
ईश्वर को बुलाना आसान है किन्तु सबसे मुश्किल उसके आने पर उसे संभालना ही होता है ,नियंत्रित करना और अपने से जोड़े रखना ही होता है |जब आप किसी निश्चित भाव-गुण-आकृति के ईष्ट में डूबते हैं ,पूर्ण एकाग्रता के साथ उसके मंत्र का जप करते हैं ,सम्बंधित सामग्री का उपयोग करते हैं तो इन सब के संयोग और मानसिक ऊर्जा से उत्पन्न तरंगो का प्रक्षेपण वातावरण में होने लगता है ,जिसके फलस्वरूप सामान प्रकृति की ऊर्जा आकर्षित होने लगती है और उसका संघनन साधक के आसपास होने लगता है ,अर्थात वह ईश्वर आने को उद्यत होने लगता है |अब सबसे महत्वपूर्ण हो जाता है की क्या साधक की मानसिक-शारीरिक स्थिति उसे सँभालने की है |
साधक बेहद भावुक और भीरु ह्रदय है ,अपनी आवश्यकतापूर्ती के लिए साधना काली की करने लगा ,काली की ऊर्जा का अवतरण हो गया और साधक अपने स्वभावानुसार डर गया या रोने लगा ,उसकी हिम्मत जबाब दे गयी उनके भयानक ऊर्जा को महसूस करके ,अथवा उसकी शारीरिक स्थिति कमजोर है और वह काली की ऊर्जा को सहन करने लायक ही नहीं है |ऐसे में साधक की ह्रदय गति रूक सकती है ,शारीरिक ऊर्जा संरचना या पावर सर्किट नष्ट हो सकता है ,मानसिक संतुलन बिगड़ सकता है |अथवा वह भावुकता में बहने लगा ,ऐसे में काली की ऊर्जा उससे जुड़ ही नहीं पाएगी और पुनः बिखर जायेगी ,व्यक्ति असफल हो जायेगा |ऐसा भी होता है की यदि स्वभाव में अति कोमलता है और काली की उग्र साधना कर रहे हों तो वह शक्ति साधक की और आकर्षित ही न हो |काली के लिए तो उग्र ,मजबूत, तामसिक भाव होना चाहिए ,शारीरिक रूप से मजबूती रखनी चाहिए ,हिम्मत होना चाहिए ,भय बिलकुल नहीं होना चाहिए |
इसी प्रकार अगर मानसिक भाव का संतुलन साधित की जाने वाली शक्ति से नहीं बैठता तो वह शक्ति आकर भी साधक से नहीं जुड़ पाती ,क्योकि उसे अपने अनुकूल मानसिक भाव नहीं प्राप्त होता है |जिस शक्ति या ईष्ट की साधना की जा रही हो उसके अनुकूल वातावरण के साथ ही उसके अनुकूल मानसिक भाव भी होना चाहिए ,,तदनुरूप शारीरिक स्थिति और ह्रदय की स्थिति भी बनानी होती है ,तभी सम्बंधित शक्ति आकर जुड़ पाती है |अक्सर साधना-अनुष्ठान करने पर सम्बंधित कार्य तो हो सकता है ,पर सम्बंधित शक्ति जुडी रह जाए जरुरी नहीं होता |यह सामान्य काम्य अनुष्ठानों में होता है ,जबकि व्यक्ति यदि ध्यान दे तो यहाँ भी आने वाली शक्ति जुडी रह सकती है |शक्ति विशेष की साधना में भी अक्सर सम्बंधित शक्ति नहीं जुड़ पाती साधक से फलतः असफलता मिलती है या कम सफलता मिलती है |इसका भी कारण आई हुई शक्ति को उसकी प्रकृति -गुण-स्वभाव के अनुसार स्थान न दे पाना या नियंत्रित न कर पाना होता है |
ईष्ट या शक्ति तो साधना प्रारम्भ होते ही आकर्षित होने लगता है ,पर जुड़ता वह भाव और शक्ति के अनुसार ही है |उसे आने पर संभालना और यथायोग्य स्थान देना ही मुश्किल होता है |यही सबसे अधिक गुरु की आवश्यकता होती है |साधना-पूजा-अनुष्ठान तो बहुतेरे करते हैं पर सफलता बहुत कम को ही मिल पाती है ,क्योकि उचित पद्धति-मार्गदर्शन और जानकारी का ही अभाव होता है |दिशा कोई ,शक्ति कोई, भाव कोई होता है |इनमे आपसी तालमेल नहीं होता |फलतः कहते मिल जाते हैं इतना किया कुछ नहीं हुआ |मंत्र-पद्धति-मुहूर्त-सामग्री-कर्मकांड पुस्तकों में मिल जाते हैं ,पर आई शक्ति को संभालें कैसे यह पुस्तक नहीं बता पाते ,इसके लिए योग्य गुरु की आवश्यकता होती है |पुस्तकें तो पुराने शास्त्रों को खोजकर लिख दी जाती है ,पर लिखने वाले साधक हों बहुत मुश्किल होता है ,साधक पुस्तकें नहीं लिखता |लिखने वाला अगर साधक हुआ भी तो विषयवस्तु की गोपनीयता के कारण यह नहीं बता सकता की कैसे आई ऊर्जा या शक्ति को संभालें या नियंत्रित करें |
आज के समय में अधिकतर की असफलता का यही कारण है की ऊर्जा तो पुस्तकों को पढ़कर ,मंत्र जपकर ,अनुष्ठान करके बुला ली जाती है पर उसे संभाले कैसे ,उसे नियंत्रित कैसे करें ,उसे कैसे स्थान दें अधिकतर नहीं जानते |बताने वाला नहीं मिलता |जो मिलते हैं खुद आधे-अधूरे ज्ञान वाले स्वयंभू ज्ञानी होते हैं |फलतः आई ऊर्जा बिखर जाती है |अनुष्ठान -साधना पर भी अपेक्षित परिणाम नहीं दीखता |अतः इस हेतु सद्गुरु खोजना ही सबसे पहले जरुरी होता है |इसीलिए गुरु को सर्वाधिक महत्व दिया गया है साधना क्षेत्र में |वही बताता है की कैसे और कब किस उर्जा को किस प्रकार नियंत्रित किया जाए ,जिससे वह आपके लिए कल्याणकारी हो सके ,आपके साथ जुड़ सके |वही बताता है की आपको किस प्रकार की उर्जा की आवश्यकता है ,आप किसे संभल पाएंगे ,आपकी प्रकृति के अनुकूल कौन है |किससे आपका कल्याण संभव है |.[व्यक्तिगत विचार ]................................................................हर-हर महादेव
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