::::::::::::::::अप्सरा [परी]:::::::::::::::::
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भारतीय संस्कृति में अप्सरा एक जाना -पहचाना नाम है ,यह नाम वैदिक युग से ही विभिन्न कारणों से जाना जाता है ,,तंत्र जगत में कई धर्मो -सम्प्रदायों में अप्सरा की साधना की जाती है विभिन्न नामों से |अप्सरा देवलोक में रहने वाली अनुपम, अति सुंदर, अनेक कलाओं में दक्ष, तेजस्वी और अलौकिक दिव्य स्त्री है। वेद और पुराणों में उल्लेख मिलता है कि देवी, परी, अप्सरा, यक्षिणी, इन्द्राणी और पिशाचिनी आदि कई प्रकार की स्त्रियां हुआ करती थीं। उनमें अप्सराओं को सबसे सुंदर और जादुई शक्ति से संपन्न माना जाता है। अप्सराओं को इस्लाम में हूर अथवा परि कहा गया है। भारतीय पुराणों में यक्षों, गंधर्वों और अप्सराओं का जिक्र आता रहा है। यक्ष, गंधर्व और अप्सराएं देवताओं की इतर श्रेणी में माने गए हैं। कहते हैं कि इन्द्र ने 108 ऋचाओं की रचना कर अप्सराओं को प्रकट किया। मंदिरों के कोने-कोने में आकर्षक मुद्रा में अंकित अप्सराओं की मूर्तियां सुंदर देहयष्टि और भाव-भंगिमाओं से ध्यान खींच लेती हैं।
वेद और पुराणों की गाथाओं में उर्वशी, मेनका, रम्भा, घृताची, तिलोत्तमा, कुंडा आदि नाम की अप्सराओं का जिक्र होता रहा है। सभी अप्सराओं की विचित्र कहानियां हैं। माना जाता है कि ये अप्सराएं गंधर्व लोक में रहती थीं। ये देवलोक में नृत्य और संगीत के माध्यम से देवताओं का मनोरंजन करती थीं।
पुराणों के अनुसार देवताओं के राजा इन्द्र ने सिंहासन की रक्षा के लिए अनेक बार संत-तपस्वियों के कठोर तप को भंग करने के लिए अप्सराओं का इस्तेमाल किया है। वेद-पुराण में कई स्थानों में इन अप्सराओं के नाम आए हैं, जहां इन्होंने घोर तपस्या में लीन ऋषियों के तप को भंग किया।
अपनी व्युत्पति (अप्सु सरत्ति गच्छतीति अप्सरा:) के अनुसार ही अप्सरा जल में रहने वाली मानी जाती है। अथर्ववेद तथा यजुर्वेद के अनुसार ये पानी में रहती हैं। अथर्ववेद के अनुसार ये अश्वत्थ तथा न्यग्रोध वृक्षों पर रहती हैं, जहां ये झूले में झूला करती हैं और इनके मधुर वाद्यों (कर्करी) की मीठी ध्वनि सुनी जाती है। ये नाच-गान तथा खेलकूद में निरत होकर अपना मनोविनोद करती हैं। अप्सराओं की कोई उम्र निर्धारित नहीं है। ये सभी अजर-अमर हैं। शास्त्रों के अनुसार देवराज इन्द्र के स्वर्ग में 11 अप्सराएं प्रमुख सेविका थीं। ये 11 अप्सराएं हैं-कृतस्थली, पुंजिकस्थला, मेनका, रम्भा, प्रम्लोचा, अनुम्लोचा, घृताची, वर्चा, उर्वशी, पूर्वचित्ति और तिलोत्तमा। इन सभी अप्सराओं की प्रधान अप्सरा रम्भा थी। अलग-अलग मान्यताओं में अप्सराओं की संख्या 108 से लेकर 1008 तक बताई गई है।
अप्सराएँ देवलोक से इतर योनी की हैं अर्थात देवता या देवी नहीं है ,मनुष्य यह हैं नहीं |इस प्रकार यह बीच की योनी है जो देवताओं की इच्छा से और मनुष्यों की आराधना से कार्य सम्पादन करती हैं |इस तात्विक दृष्टि से देखें तो इनका स्थान बीच का आता है ,,अर्थात पृथ्वी से ऊपर और देलोक से नीचे |पृथ्वी की सतह पर नैसर्गिक नकारात्मक शक्तियां रहती हैं यथा पिशाच-पिशाचिनी आदि किन्तु अप्सरा नकारात्मक शक्तियां नहीं हैं इसलिए इनका स्थान सतह से कुछ ऊपर होता है और मूलतः इन्हें ऋणात्मक शक्तियों की श्रेणी में रखा जा सकता है |अप्सराएँ सहायिका की भूमिका निभाती है और भौतिक सुख-समृद्धि दे सकती है ,चुकी इनमे विलक्षण जादुई या अलुकिक शक्तियां होती हैं अतः साधकों या मनुष्यों के लिए बहुत प्रकार से लाभदायक होती हैं |इसी कारण बहुत से साधक इनकी साधना करके इन्हें अपने वशीभूत कर लेते हैं जिससे उन्हें अपनी उच्च साधनाएं निर्विघ्न से संपन्न करने में सहायत मिले |यद्यपि इनकी साधना बेहद कठिन होती है किन्तु देव-देवी जितनी नहीं ,,चुकी ऋणात्मक शक्तियां हैं अतः सामान्य रूप से तामसिक प्रवृत्ति की और शीघ्र आकृष्ट होती हैं और नियंत्रित हो सकती हैं |
कुछ नाम और- अम्बिका, अलम्वुषा, अनावद्या, अनुचना, अरुणा, असिता, बुदबुदा, चन्द्रज्योत्सना, देवी, घृताची, गुनमुख्या, गुनुवरा, हर्षा, इन्द्रलक्ष्मी, काम्या, कर्णिका, केशिनी, क्षेमा, लता, लक्ष्मना, मनोरमा, मारिची, मिश्रास्थला, मृगाक्षी, नाभिदर्शना, पूर्वचिट्टी, पुष्पदेहा, रक्षिता, ऋतुशला, साहजन्या, समीची, सौरभेदी, शारद्वती, शुचिका, सोमी, सुवाहु, सुगंधा, सुप्रिया, सुरजा, सुरसा, सुराता, उमलोचा आदि।
रम्भा :
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रम्भा का नाम कथाओं कहानियों में विशेष सुंदरी के तौर पर आता है |यह एक अप्सरा थी ,जिसे समुद्र मंथन से प्राप्त चदः रत्नों में से एक रत्न बताया जाता है |कथाओं में कई रम्भाओं का उल्लेख मिलता है ,एक रम्भा समुद्र मंथन के दौरान प्रकट हुई थी और दूसरी कश्यप और प्राधा की पुत्री थी। क्या दोनों एक ही थीं, यह शोध का विषय हो सकता है। इसी तरह रम्भा के अन्य स्थानों पर उल्लेख भी मिलते हैं |यदि रम्भा के अस्तित्व को तंत्र जगत की अप्सरा नामक शक्ति के अनुसार परिभाषित करें तो सभी राम्भायें एक ही हो सकती हैं ,क्योकि अप्सरा एक ऊर्जा है जो धरती और आकाश के बीच के स्थान में होती है और इसमें शक्ति होती है की यह एक साथ कई स्थानों पर उपस्थित हो सके |यह एक पारलौकिक शक्ति होती है |किन्तु तार्किक और धार्मिक कथाओं में विश्वास रखने वालों के लिए यह मानना थोडा कठिन हो सकता है |कहानियों के अनुसार इन्द्र ने देवताओं से रम्भा को अपनी राजसभा के लिए प्राप्त कर लिया था। रम्भा अपने रूप और सौन्दर्य के लिए तीनों लोकों में प्रसिद्ध थी। 'महाभारत' में इसे तुरुंब नाम के गंधर्व की पत्नी बताया गया है। स्वर्ग में अर्जुन के स्वागत के लिए रम्भा ने नृत्य किया था। रम्भा नाम की अप्सरा कुबेर की सभा में थी। रम्भा कुबेर के पुत्र नलकुबेर के साथ पत्नी की तरह रहती थी। रम्भा-नलकुबेर के संबंध को लेकर रावण ने उपहास उड़ाया था। रावण द्वारा इस प्रकार व्यंग्य और उपहास करने के कारण नलकुबेर ने रावण को शाप दिया था कि 'जा, जब भी तू तुझे न चाहने वाली स्त्री से संभोग करेगा, तब तुझे अपने प्राणों से हाथ धोना पड़ेगा।' माना जाता है कि इसी शाप के भय से रावण ने सीताहरण के बाद सीता को छुआ तक नहीं था। अन्य जगहों पर उल्लेख मिलता है कि रावण ने रम्भा के साथ बलात्कार करने का प्रयास किया था जिसके चलते रम्भा ने उसे शाप दिया था।
अप्सरा उर्वशी :
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श्रीमद्भागवत के अनुसार यह उर्वशी स्वर्ग (हिमालय के उत्तर का भाग) की सर्वसुन्दर अप्सरा थी। एक बार इन्द्र की सभा में उर्वशी के नृत्य के समय राजा पुरुरवा (चंद्रवंशियों के मूल पिता) उसके प्रति आकृष्ट हो गए थे जिसके चलते उसकी ताल बिगड़ गई थी। इस अपराध के कारण इन्द्र ने रुष्ट होकर दोनों को मर्त्यलोक में रहने का शाप दे दिया था। मर्त्यलोक में पुरुरवा और उर्वशी कुछ शर्तों के साथ पति-पत्नी बनकर रहने लगे। इनके 9 पुत्र आयु, अमावसु, विश्वायु, श्रुतायु, दृढ़ायु, शतायु आदि उत्पन्न हुए। उर्वशी को इन्द्र बहुत चाहते थे।
माना जाता है कि नारायण की जंघा से उर्वशी की उत्पत्ति हुई है, लेकिन पद्म पुराण के अनुसार कामदेव के ऊरू से इसका जन्म हुआ था। उर्वशी तो अजर-अमर है। यही उर्वशी एक बार इन्द्र की सभा में अर्जुन को देखकर आकर्षित हो गई थी और इसने अर्जुन से प्रणय-निवेदन किया था, लेकिन अर्जुन ने कहा- 'हे देवी! हमारे पूर्वज ने आपसे विवाह करके हमारे वंश का गौरव बढ़ाया था अतः पुरु वंश की जननी होने के नाते आप हमारी माता के तुल्य हैं...।' अर्जुन की ऐसी बातें सुनकर उर्वशी ने कहा- 'तुमने नपुंसकों जैसे वचन कहे हैं अतः मैं तुम्हें शाप देती हूं कि तुम 1 वर्ष तक पुंसत्वहीन रहोगे।' ,इस कथा को पांडव वनवास में अर्जुन के नृत्य शिक्षक के रूप से सम्बंधित माना जाता है |इस तरह उर्वशी के संबंध में सैकड़ों कथाएं पुराणों में मिलती हैं।
अप्सरा मेनका :
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मेनका स्वर्ग की सबसे सुंदर अप्सरा थी। महान तपस्वी ऋषि विश्वामित्र ने नए स्वर्ग के निर्माण के लिए जब तपस्या शुरू की तो उनके तप से देवराज इन्द्र ने घबराकर उनकी तपस्या भंग करने के लिए मेनका को भेजा |मेनका ने अपने रूप और सौंदर्य से तपस्या में लीन विश्वामित्र का तप भंग कर दिया। विश्वामित्र सब कुछ छोड़कर मेनका के ही प्रेम में डूब गए। मेनका से विश्वामित्र ने विवाह कर लिया और मेनका से विश्वामित्र को एक सुन्दर कन्या प्राप्त हुई जिसका नाम शकुंतला रखा गया। जब शकुंतला छोटी ही थी, तभी एक दिन मेनका उसे और विश्वामित्र को छोड़कर फिर से स्वर्ग चली गई। मेनका के छोड़कर चले जाने के बाद शकुंतला का लालन-पालन और शिक्षा-दीक्षा ऋषि कण्व ने की इसलिए वे उसके धर्मपिता थे। शकुंतला का विवाह राजा दुष्यंत से हुआ। पुरुवंश के राजा दुष्यंत और शकुंतला के पुत्र भरत की गणना 'महाभारत' में वर्णित 16 सर्वश्रेष्ठ राजाओं में होती है।
अप्सरा तिलोत्तमा :
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तिलोत्तमा स्वर्ग की परम सुंदर अप्सरा थीं। पुराणों अनुसार इसकी सृष्टि करने के लिए ब्रह्माजी ने संसार भर की सुन्दर वस्तुओं में से तिल-तिल भर लिया था। कहा यह भी जाता है कि ब्रह्मा के हवनकुंड से इसका जन्म हुआ था। दुर्वासा ऋषि के शाप से यही तिलोत्तमा बाण की पुत्री हुई थी। माघ मास में यह सौर गण के साथ सूर्य के रथ पर रहती है। दूसरी मान्यता अनुसार तिलोत्तमा आश्विन मास (वायुपुराण के अनुसार माघ) में अन्य सात सौरगण के साथ सूर्य के रथ की मालकिन है। अष्टावक्र ने इसे शाप दिया था।
कश्यप ऋषि के दो प्रमुख पुत्र हिरण्यकशिपु और हिरण्याक्क्ष थे। हिरण्यकशिपु के वंश में निकुंभ नामक एक असुर उत्पन्न हुआ था, जिसके सुन्द और उपसुन्द नामक दो पराक्रमी पुत्र थे। त्रिलोक्य विजय करने के लिए दोनों विन्ध्यांचल पर्वत पर तप करने लगे। जब ब्रह्माजी प्रसन्न होकर वर देने आए तो इन दोनों ने अमरत्व का वर मांगा। लेकिन जब ब्रह्मा ने यह वरदान देने से इनकार कर दिया तब दोनों भाइयों ने सोचा कि उनमें तो आपस में बहुत प्रेम है और वे कभी भी आपस में नहीं लड़ते हैं और न लड़ सकते हैं। इसीलिए उन्होंने ब्रह्माजी से कहा कि उन्हें यह वरदान मिले कि एक-दूसरे को छोड़कर त्रिलोक में उन्हें कोई भी नहीं मार सके। ब्रह्मा ने कहा- तथास्तु। ब्रह्मा से वरदान पाकर सुन्द और उपसुन्द ने त्रिलोक्य में अत्याचारों करने शुरू कर दिए जिसके चलते सभी ओर हाहाकार मच गया। अत: इन दोनों भाइयों को आपस में लड़वाने के लिए ही ब्रह्मा ने तिलोत्तमा नाम की अप्सरा की सृष्टि की। सुन्द, उपसुन्द के निवास स्थान विन्ध्य पर्वत पर तिलोत्तमा भेज दी गई। तिलोत्तमा को देखते ही दोनों भाई उसे पाने के लिए आपस में लड़ने लगे और एक-दूसरे के हाथों मारे गए। इस तरह 108 अप्सराओं की अलग अलग कहानियां हैं|
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भारतीय संस्कृति में अप्सरा एक जाना -पहचाना नाम है ,यह नाम वैदिक युग से ही विभिन्न कारणों से जाना जाता है ,,तंत्र जगत में कई धर्मो -सम्प्रदायों में अप्सरा की साधना की जाती है विभिन्न नामों से |अप्सरा देवलोक में रहने वाली अनुपम, अति सुंदर, अनेक कलाओं में दक्ष, तेजस्वी और अलौकिक दिव्य स्त्री है। वेद और पुराणों में उल्लेख मिलता है कि देवी, परी, अप्सरा, यक्षिणी, इन्द्राणी और पिशाचिनी आदि कई प्रकार की स्त्रियां हुआ करती थीं। उनमें अप्सराओं को सबसे सुंदर और जादुई शक्ति से संपन्न माना जाता है। अप्सराओं को इस्लाम में हूर अथवा परि कहा गया है। भारतीय पुराणों में यक्षों, गंधर्वों और अप्सराओं का जिक्र आता रहा है। यक्ष, गंधर्व और अप्सराएं देवताओं की इतर श्रेणी में माने गए हैं। कहते हैं कि इन्द्र ने 108 ऋचाओं की रचना कर अप्सराओं को प्रकट किया। मंदिरों के कोने-कोने में आकर्षक मुद्रा में अंकित अप्सराओं की मूर्तियां सुंदर देहयष्टि और भाव-भंगिमाओं से ध्यान खींच लेती हैं।
वेद और पुराणों की गाथाओं में उर्वशी, मेनका, रम्भा, घृताची, तिलोत्तमा, कुंडा आदि नाम की अप्सराओं का जिक्र होता रहा है। सभी अप्सराओं की विचित्र कहानियां हैं। माना जाता है कि ये अप्सराएं गंधर्व लोक में रहती थीं। ये देवलोक में नृत्य और संगीत के माध्यम से देवताओं का मनोरंजन करती थीं।
पुराणों के अनुसार देवताओं के राजा इन्द्र ने सिंहासन की रक्षा के लिए अनेक बार संत-तपस्वियों के कठोर तप को भंग करने के लिए अप्सराओं का इस्तेमाल किया है। वेद-पुराण में कई स्थानों में इन अप्सराओं के नाम आए हैं, जहां इन्होंने घोर तपस्या में लीन ऋषियों के तप को भंग किया।
अपनी व्युत्पति (अप्सु सरत्ति गच्छतीति अप्सरा:) के अनुसार ही अप्सरा जल में रहने वाली मानी जाती है। अथर्ववेद तथा यजुर्वेद के अनुसार ये पानी में रहती हैं। अथर्ववेद के अनुसार ये अश्वत्थ तथा न्यग्रोध वृक्षों पर रहती हैं, जहां ये झूले में झूला करती हैं और इनके मधुर वाद्यों (कर्करी) की मीठी ध्वनि सुनी जाती है। ये नाच-गान तथा खेलकूद में निरत होकर अपना मनोविनोद करती हैं। अप्सराओं की कोई उम्र निर्धारित नहीं है। ये सभी अजर-अमर हैं। शास्त्रों के अनुसार देवराज इन्द्र के स्वर्ग में 11 अप्सराएं प्रमुख सेविका थीं। ये 11 अप्सराएं हैं-कृतस्थली, पुंजिकस्थला, मेनका, रम्भा, प्रम्लोचा, अनुम्लोचा, घृताची, वर्चा, उर्वशी, पूर्वचित्ति और तिलोत्तमा। इन सभी अप्सराओं की प्रधान अप्सरा रम्भा थी। अलग-अलग मान्यताओं में अप्सराओं की संख्या 108 से लेकर 1008 तक बताई गई है।
अप्सराएँ देवलोक से इतर योनी की हैं अर्थात देवता या देवी नहीं है ,मनुष्य यह हैं नहीं |इस प्रकार यह बीच की योनी है जो देवताओं की इच्छा से और मनुष्यों की आराधना से कार्य सम्पादन करती हैं |इस तात्विक दृष्टि से देखें तो इनका स्थान बीच का आता है ,,अर्थात पृथ्वी से ऊपर और देलोक से नीचे |पृथ्वी की सतह पर नैसर्गिक नकारात्मक शक्तियां रहती हैं यथा पिशाच-पिशाचिनी आदि किन्तु अप्सरा नकारात्मक शक्तियां नहीं हैं इसलिए इनका स्थान सतह से कुछ ऊपर होता है और मूलतः इन्हें ऋणात्मक शक्तियों की श्रेणी में रखा जा सकता है |अप्सराएँ सहायिका की भूमिका निभाती है और भौतिक सुख-समृद्धि दे सकती है ,चुकी इनमे विलक्षण जादुई या अलुकिक शक्तियां होती हैं अतः साधकों या मनुष्यों के लिए बहुत प्रकार से लाभदायक होती हैं |इसी कारण बहुत से साधक इनकी साधना करके इन्हें अपने वशीभूत कर लेते हैं जिससे उन्हें अपनी उच्च साधनाएं निर्विघ्न से संपन्न करने में सहायत मिले |यद्यपि इनकी साधना बेहद कठिन होती है किन्तु देव-देवी जितनी नहीं ,,चुकी ऋणात्मक शक्तियां हैं अतः सामान्य रूप से तामसिक प्रवृत्ति की और शीघ्र आकृष्ट होती हैं और नियंत्रित हो सकती हैं |
कुछ नाम और- अम्बिका, अलम्वुषा, अनावद्या, अनुचना, अरुणा, असिता, बुदबुदा, चन्द्रज्योत्सना, देवी, घृताची, गुनमुख्या, गुनुवरा, हर्षा, इन्द्रलक्ष्मी, काम्या, कर्णिका, केशिनी, क्षेमा, लता, लक्ष्मना, मनोरमा, मारिची, मिश्रास्थला, मृगाक्षी, नाभिदर्शना, पूर्वचिट्टी, पुष्पदेहा, रक्षिता, ऋतुशला, साहजन्या, समीची, सौरभेदी, शारद्वती, शुचिका, सोमी, सुवाहु, सुगंधा, सुप्रिया, सुरजा, सुरसा, सुराता, उमलोचा आदि।
रम्भा :
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रम्भा का नाम कथाओं कहानियों में विशेष सुंदरी के तौर पर आता है |यह एक अप्सरा थी ,जिसे समुद्र मंथन से प्राप्त चदः रत्नों में से एक रत्न बताया जाता है |कथाओं में कई रम्भाओं का उल्लेख मिलता है ,एक रम्भा समुद्र मंथन के दौरान प्रकट हुई थी और दूसरी कश्यप और प्राधा की पुत्री थी। क्या दोनों एक ही थीं, यह शोध का विषय हो सकता है। इसी तरह रम्भा के अन्य स्थानों पर उल्लेख भी मिलते हैं |यदि रम्भा के अस्तित्व को तंत्र जगत की अप्सरा नामक शक्ति के अनुसार परिभाषित करें तो सभी राम्भायें एक ही हो सकती हैं ,क्योकि अप्सरा एक ऊर्जा है जो धरती और आकाश के बीच के स्थान में होती है और इसमें शक्ति होती है की यह एक साथ कई स्थानों पर उपस्थित हो सके |यह एक पारलौकिक शक्ति होती है |किन्तु तार्किक और धार्मिक कथाओं में विश्वास रखने वालों के लिए यह मानना थोडा कठिन हो सकता है |कहानियों के अनुसार इन्द्र ने देवताओं से रम्भा को अपनी राजसभा के लिए प्राप्त कर लिया था। रम्भा अपने रूप और सौन्दर्य के लिए तीनों लोकों में प्रसिद्ध थी। 'महाभारत' में इसे तुरुंब नाम के गंधर्व की पत्नी बताया गया है। स्वर्ग में अर्जुन के स्वागत के लिए रम्भा ने नृत्य किया था। रम्भा नाम की अप्सरा कुबेर की सभा में थी। रम्भा कुबेर के पुत्र नलकुबेर के साथ पत्नी की तरह रहती थी। रम्भा-नलकुबेर के संबंध को लेकर रावण ने उपहास उड़ाया था। रावण द्वारा इस प्रकार व्यंग्य और उपहास करने के कारण नलकुबेर ने रावण को शाप दिया था कि 'जा, जब भी तू तुझे न चाहने वाली स्त्री से संभोग करेगा, तब तुझे अपने प्राणों से हाथ धोना पड़ेगा।' माना जाता है कि इसी शाप के भय से रावण ने सीताहरण के बाद सीता को छुआ तक नहीं था। अन्य जगहों पर उल्लेख मिलता है कि रावण ने रम्भा के साथ बलात्कार करने का प्रयास किया था जिसके चलते रम्भा ने उसे शाप दिया था।
अप्सरा उर्वशी :
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श्रीमद्भागवत के अनुसार यह उर्वशी स्वर्ग (हिमालय के उत्तर का भाग) की सर्वसुन्दर अप्सरा थी। एक बार इन्द्र की सभा में उर्वशी के नृत्य के समय राजा पुरुरवा (चंद्रवंशियों के मूल पिता) उसके प्रति आकृष्ट हो गए थे जिसके चलते उसकी ताल बिगड़ गई थी। इस अपराध के कारण इन्द्र ने रुष्ट होकर दोनों को मर्त्यलोक में रहने का शाप दे दिया था। मर्त्यलोक में पुरुरवा और उर्वशी कुछ शर्तों के साथ पति-पत्नी बनकर रहने लगे। इनके 9 पुत्र आयु, अमावसु, विश्वायु, श्रुतायु, दृढ़ायु, शतायु आदि उत्पन्न हुए। उर्वशी को इन्द्र बहुत चाहते थे।
माना जाता है कि नारायण की जंघा से उर्वशी की उत्पत्ति हुई है, लेकिन पद्म पुराण के अनुसार कामदेव के ऊरू से इसका जन्म हुआ था। उर्वशी तो अजर-अमर है। यही उर्वशी एक बार इन्द्र की सभा में अर्जुन को देखकर आकर्षित हो गई थी और इसने अर्जुन से प्रणय-निवेदन किया था, लेकिन अर्जुन ने कहा- 'हे देवी! हमारे पूर्वज ने आपसे विवाह करके हमारे वंश का गौरव बढ़ाया था अतः पुरु वंश की जननी होने के नाते आप हमारी माता के तुल्य हैं...।' अर्जुन की ऐसी बातें सुनकर उर्वशी ने कहा- 'तुमने नपुंसकों जैसे वचन कहे हैं अतः मैं तुम्हें शाप देती हूं कि तुम 1 वर्ष तक पुंसत्वहीन रहोगे।' ,इस कथा को पांडव वनवास में अर्जुन के नृत्य शिक्षक के रूप से सम्बंधित माना जाता है |इस तरह उर्वशी के संबंध में सैकड़ों कथाएं पुराणों में मिलती हैं।
अप्सरा मेनका :
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मेनका स्वर्ग की सबसे सुंदर अप्सरा थी। महान तपस्वी ऋषि विश्वामित्र ने नए स्वर्ग के निर्माण के लिए जब तपस्या शुरू की तो उनके तप से देवराज इन्द्र ने घबराकर उनकी तपस्या भंग करने के लिए मेनका को भेजा |मेनका ने अपने रूप और सौंदर्य से तपस्या में लीन विश्वामित्र का तप भंग कर दिया। विश्वामित्र सब कुछ छोड़कर मेनका के ही प्रेम में डूब गए। मेनका से विश्वामित्र ने विवाह कर लिया और मेनका से विश्वामित्र को एक सुन्दर कन्या प्राप्त हुई जिसका नाम शकुंतला रखा गया। जब शकुंतला छोटी ही थी, तभी एक दिन मेनका उसे और विश्वामित्र को छोड़कर फिर से स्वर्ग चली गई। मेनका के छोड़कर चले जाने के बाद शकुंतला का लालन-पालन और शिक्षा-दीक्षा ऋषि कण्व ने की इसलिए वे उसके धर्मपिता थे। शकुंतला का विवाह राजा दुष्यंत से हुआ। पुरुवंश के राजा दुष्यंत और शकुंतला के पुत्र भरत की गणना 'महाभारत' में वर्णित 16 सर्वश्रेष्ठ राजाओं में होती है।
अप्सरा तिलोत्तमा :
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तिलोत्तमा स्वर्ग की परम सुंदर अप्सरा थीं। पुराणों अनुसार इसकी सृष्टि करने के लिए ब्रह्माजी ने संसार भर की सुन्दर वस्तुओं में से तिल-तिल भर लिया था। कहा यह भी जाता है कि ब्रह्मा के हवनकुंड से इसका जन्म हुआ था। दुर्वासा ऋषि के शाप से यही तिलोत्तमा बाण की पुत्री हुई थी। माघ मास में यह सौर गण के साथ सूर्य के रथ पर रहती है। दूसरी मान्यता अनुसार तिलोत्तमा आश्विन मास (वायुपुराण के अनुसार माघ) में अन्य सात सौरगण के साथ सूर्य के रथ की मालकिन है। अष्टावक्र ने इसे शाप दिया था।
कश्यप ऋषि के दो प्रमुख पुत्र हिरण्यकशिपु और हिरण्याक्क्ष थे। हिरण्यकशिपु के वंश में निकुंभ नामक एक असुर उत्पन्न हुआ था, जिसके सुन्द और उपसुन्द नामक दो पराक्रमी पुत्र थे। त्रिलोक्य विजय करने के लिए दोनों विन्ध्यांचल पर्वत पर तप करने लगे। जब ब्रह्माजी प्रसन्न होकर वर देने आए तो इन दोनों ने अमरत्व का वर मांगा। लेकिन जब ब्रह्मा ने यह वरदान देने से इनकार कर दिया तब दोनों भाइयों ने सोचा कि उनमें तो आपस में बहुत प्रेम है और वे कभी भी आपस में नहीं लड़ते हैं और न लड़ सकते हैं। इसीलिए उन्होंने ब्रह्माजी से कहा कि उन्हें यह वरदान मिले कि एक-दूसरे को छोड़कर त्रिलोक में उन्हें कोई भी नहीं मार सके। ब्रह्मा ने कहा- तथास्तु। ब्रह्मा से वरदान पाकर सुन्द और उपसुन्द ने त्रिलोक्य में अत्याचारों करने शुरू कर दिए जिसके चलते सभी ओर हाहाकार मच गया। अत: इन दोनों भाइयों को आपस में लड़वाने के लिए ही ब्रह्मा ने तिलोत्तमा नाम की अप्सरा की सृष्टि की। सुन्द, उपसुन्द के निवास स्थान विन्ध्य पर्वत पर तिलोत्तमा भेज दी गई। तिलोत्तमा को देखते ही दोनों भाई उसे पाने के लिए आपस में लड़ने लगे और एक-दूसरे के हाथों मारे गए। इस तरह 108 अप्सराओं की अलग अलग कहानियां हैं|
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