कैसे होता है आपके आराध्य देवता [ईष्ट] का दर्शन [प्रत्यक्षीकरण ]आपको
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ईष्ट या देवता का प्रत्यक्षीकरण या प्रकटीकरण एक ऐसी घटना होती है ,जिसे लक्ष्यकर प्रत्येक साधक -आराधक अपने पूजा-अनुष्ठान-साधना शुरू करता है |उसका परम लक्ष्य उस ईष्ट या देवता का साक्षात्कार करना होता है |सामान्य साधक या आस्थावान कभी यह नहीं सोचता यह कैसे होता है ,कहा से आते है देवी-देवता ,इसके पीछे कौन सी उर्जा-तकनीक काम करती है |,क्या सचमुच वह ईष्ट हमारे सामने कही से आकर खड़ा हो जाता है ,जिसे हम बुला रहे होते है ,क्या वास्तव में ऐसे देवता कही किसी लोक में रहते है | क्षमा कीजियेगा यदि आस्थावानो की भावना को ठेस लगे ,किन्तु यदि आप समझते है की देवी-देवता की आकृतियों के विलक्षण प्राणी इस ब्रह्माण्ड में कही रहते है तो आप भारी भ्रम में है |
कभी इन देवियों की पूजा पहाड़ काटकर मूर्ति जैसा बनाकर ,कभी फूस तो कभी मिटटी की पिंडी जैसी बनाकर की जाती थी ,,आज इनकी सुन्दर मुर्तिया बनी हुई है |आप इनमे से किस आकृति की देवी को अलौकिक प्राणी मानेगे?देवता तो वैदिक ऋषियों के प्रतीक थे और वे मूर्ति पूजक थे ही नहीं |यदि देवी-देवता जैसे प्राणी है तो वे केवल मूर्ति पूजको को ही मिलने चाहिए |फिर जो मूर्ति पूजक नहीं है ,मुसलमान या ईसाई है ,या जो गुरु परम्परा के है अथवा जो गुरु को ही ईश्वर मानते है ,तो क्या उन्हें ईश्वर नहीं मिलता या वे ईश्वरीय उर्जा अथवा कृपा से वंचित होते है |नहीं ऐसा नहीं है ,ईश्वर उर्जा स्वरुप है ,सर्वत्र विद्यमान है ,,मुर्तिया वस्तुतः भाव मुर्तिया है ,जो मानसिक एकाग्रता के लिए होती है ,एक विशेष प्रकार की ऊर्जा -गुण और भाव जाग्रत करने वाली आकृति होती है मुर्तिया |सामने एक आकृति है और उसका भाव है तो उस भाव को गहन करना सरल हो जाता है |
जब भाव गहन होता है ,तो एक समय ऐसा आता है ,जब साधक अनुभूत करता है की वह आकृति प्रकट हो गयी |वह आकृति प्रत्यक्ष उससे बातें कर रही है |यह कल्पना का साकार हो जाना है |वह आकृति सचमुच साधक के सामने सजीव हो जाती है और उसके प्रत्येक प्रश्न के उत्तर देती है या आशीर्वाद देकर दर्शन देती है |
यह साधना की एक दुर्लभ अवस्था है ,इस अवस्था में पंहुचा साधक ही वास्तविक सिद्ध है |...........परन्तु क्षमा कीजियेगा यह भी एक भावात्मक अनुभूति है वहा कोई प्राणी नहीं आया होता है अपितु ऊर्जा समूह आकृति में आया होता है और वहा व्याप्त होता है |साधक जब उस आकृति को प्रत्यक्ष करता है तो वहा का वातावरण उस भाव से संतृप्त हो जाता है ,फलतः वहा अन्य जो भी होगा उसे लगेगा एकाएक कुछ परिवर्तन हो गया और वह चौंकेगा ,किन्तु उस आकृति को केवल साधक अनुभव कर सकेगा और बातें कर सकेगा ,अन्य व्यक्ति को वह दृष्टिगत नहीं होगी ,क्योकि वह साधक के भाव की आकृति है ,वास्तव में उसका वहा कोई अवतरण नहीं होता |
होता यह है की जब साधक किसी विशेष भाव-गुण-आकृति पर एकाग्र होता है तो उसके भाव की गहनता उसके आतंरिक ऊर्जा चक्र में सम्बंधित गुण -भाव के चक्र को स्पंदित करने लगते है [[ज्ञातव्य है की शरीर में ही समस्त गुणों का प्रतिनिधित्व करने वाले चक्र उपस्थित होते है ,तभी तो कहा जाता है की सभी देवी देवता इसी शरीर में है ]]फलतः चक्र से सामान्य से अधिक उर्जा और तरंगे उर्सर्जित होने लगती है ,यह तरंगे शारीरिक -रासायनिक परिवर्तन के साथ ही विशिष्ट आभामंडल भी बनाने लगती है |इस प्रकार एक निश्चित मानसिक उर्जा बनती और अंतरिक्ष में प्रक्षेपित होने लगती है ,जिसके बल से सौरमंडल में उपस्थित उसी प्रकार की उर्जा और भाव तरंगे वहाँ खिचने [आकर्षित होने] लगती है और वह क्षेत्र उन तरंगों और उर्जा से घनीभूत हो जाता है |इससे वहा उपस्थित प्रत्येक व्यक्ति का आतंरिक उर्जा परिपथ प्रभावित होता है |साधक में मानसिक रूप से स्थिर आकृति के अनुसार यह ऊर्जा परिवर्तित हो उसके सामने प्रत्यक्ष हो जाती है ,और साधक को सिद्ध हो उसके मानसिक तरंगों की क्रिया से संचालित होने लगती है |
यह सब ब्रह्मांडीय ऊर्जा तरंगों का खेल है |जिसके सामने प्रत्यक्षीकरण होता है केवल वही उसे देख पाता है ,दूसरों को केवल अनुभूति होती है की वातावरण में परिवर्तन हो गया है |प्रत्यक्षीकरण \दर्शन समाप्त होने के बाद भी उन ऊर्जा तरंगों का प्रभाव उस स्थान पर रहता है ,पर देवता के आने का कोई भौतिक चिन्ह नहीं होता |प्राकृतिक रूप से कोई देवता -देवी कोई भौतिक चिन्ह नहीं छोड़ते ,क्योकि उनका भौतिक शरीर होता ही नहीं |वह तो साधक की भावना के अनुरूप रूप धारण कर प्रत्यक्ष होते है |जो भौतिक चिन्ह छोड़ने की बात करता है वह झूठ बोलता है |
यह सब ऊर्जा का प्रत्यक्षीकरण और मानसिक ऊर्जा द्वारा उनका नियंत्रण है ,इसी के बल पर बिना मूर्ति पूजा या साकार आराधना के भी बहुत से धर्म-सम्प्रदाय ईश्वरीय ऊर्जा और कृपा प्राप्त करते रहते है ,गुरु को ईष्ट या ईश्वर मानने वाले को गुरु के दर्शन होते हैं ,निराकार शक्ति को मानने वाले को शक्ति का बिना रूप के भी आभास होता है ,क्योकि ऊर्जा का केन्द्रीकरण आसपास हो चूका होता है ,जिस रूप पर मानसिक शक्ति एकाग्र होती है शक्ति वाही भाव ग्रहण कर लेती है |,.......[एक चिंतन ].......................................................हर-हर महादेव
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ईष्ट या देवता का प्रत्यक्षीकरण या प्रकटीकरण एक ऐसी घटना होती है ,जिसे लक्ष्यकर प्रत्येक साधक -आराधक अपने पूजा-अनुष्ठान-साधना शुरू करता है |उसका परम लक्ष्य उस ईष्ट या देवता का साक्षात्कार करना होता है |सामान्य साधक या आस्थावान कभी यह नहीं सोचता यह कैसे होता है ,कहा से आते है देवी-देवता ,इसके पीछे कौन सी उर्जा-तकनीक काम करती है |,क्या सचमुच वह ईष्ट हमारे सामने कही से आकर खड़ा हो जाता है ,जिसे हम बुला रहे होते है ,क्या वास्तव में ऐसे देवता कही किसी लोक में रहते है | क्षमा कीजियेगा यदि आस्थावानो की भावना को ठेस लगे ,किन्तु यदि आप समझते है की देवी-देवता की आकृतियों के विलक्षण प्राणी इस ब्रह्माण्ड में कही रहते है तो आप भारी भ्रम में है |
कभी इन देवियों की पूजा पहाड़ काटकर मूर्ति जैसा बनाकर ,कभी फूस तो कभी मिटटी की पिंडी जैसी बनाकर की जाती थी ,,आज इनकी सुन्दर मुर्तिया बनी हुई है |आप इनमे से किस आकृति की देवी को अलौकिक प्राणी मानेगे?देवता तो वैदिक ऋषियों के प्रतीक थे और वे मूर्ति पूजक थे ही नहीं |यदि देवी-देवता जैसे प्राणी है तो वे केवल मूर्ति पूजको को ही मिलने चाहिए |फिर जो मूर्ति पूजक नहीं है ,मुसलमान या ईसाई है ,या जो गुरु परम्परा के है अथवा जो गुरु को ही ईश्वर मानते है ,तो क्या उन्हें ईश्वर नहीं मिलता या वे ईश्वरीय उर्जा अथवा कृपा से वंचित होते है |नहीं ऐसा नहीं है ,ईश्वर उर्जा स्वरुप है ,सर्वत्र विद्यमान है ,,मुर्तिया वस्तुतः भाव मुर्तिया है ,जो मानसिक एकाग्रता के लिए होती है ,एक विशेष प्रकार की ऊर्जा -गुण और भाव जाग्रत करने वाली आकृति होती है मुर्तिया |सामने एक आकृति है और उसका भाव है तो उस भाव को गहन करना सरल हो जाता है |
जब भाव गहन होता है ,तो एक समय ऐसा आता है ,जब साधक अनुभूत करता है की वह आकृति प्रकट हो गयी |वह आकृति प्रत्यक्ष उससे बातें कर रही है |यह कल्पना का साकार हो जाना है |वह आकृति सचमुच साधक के सामने सजीव हो जाती है और उसके प्रत्येक प्रश्न के उत्तर देती है या आशीर्वाद देकर दर्शन देती है |
यह साधना की एक दुर्लभ अवस्था है ,इस अवस्था में पंहुचा साधक ही वास्तविक सिद्ध है |...........परन्तु क्षमा कीजियेगा यह भी एक भावात्मक अनुभूति है वहा कोई प्राणी नहीं आया होता है अपितु ऊर्जा समूह आकृति में आया होता है और वहा व्याप्त होता है |साधक जब उस आकृति को प्रत्यक्ष करता है तो वहा का वातावरण उस भाव से संतृप्त हो जाता है ,फलतः वहा अन्य जो भी होगा उसे लगेगा एकाएक कुछ परिवर्तन हो गया और वह चौंकेगा ,किन्तु उस आकृति को केवल साधक अनुभव कर सकेगा और बातें कर सकेगा ,अन्य व्यक्ति को वह दृष्टिगत नहीं होगी ,क्योकि वह साधक के भाव की आकृति है ,वास्तव में उसका वहा कोई अवतरण नहीं होता |
होता यह है की जब साधक किसी विशेष भाव-गुण-आकृति पर एकाग्र होता है तो उसके भाव की गहनता उसके आतंरिक ऊर्जा चक्र में सम्बंधित गुण -भाव के चक्र को स्पंदित करने लगते है [[ज्ञातव्य है की शरीर में ही समस्त गुणों का प्रतिनिधित्व करने वाले चक्र उपस्थित होते है ,तभी तो कहा जाता है की सभी देवी देवता इसी शरीर में है ]]फलतः चक्र से सामान्य से अधिक उर्जा और तरंगे उर्सर्जित होने लगती है ,यह तरंगे शारीरिक -रासायनिक परिवर्तन के साथ ही विशिष्ट आभामंडल भी बनाने लगती है |इस प्रकार एक निश्चित मानसिक उर्जा बनती और अंतरिक्ष में प्रक्षेपित होने लगती है ,जिसके बल से सौरमंडल में उपस्थित उसी प्रकार की उर्जा और भाव तरंगे वहाँ खिचने [आकर्षित होने] लगती है और वह क्षेत्र उन तरंगों और उर्जा से घनीभूत हो जाता है |इससे वहा उपस्थित प्रत्येक व्यक्ति का आतंरिक उर्जा परिपथ प्रभावित होता है |साधक में मानसिक रूप से स्थिर आकृति के अनुसार यह ऊर्जा परिवर्तित हो उसके सामने प्रत्यक्ष हो जाती है ,और साधक को सिद्ध हो उसके मानसिक तरंगों की क्रिया से संचालित होने लगती है |
यह सब ब्रह्मांडीय ऊर्जा तरंगों का खेल है |जिसके सामने प्रत्यक्षीकरण होता है केवल वही उसे देख पाता है ,दूसरों को केवल अनुभूति होती है की वातावरण में परिवर्तन हो गया है |प्रत्यक्षीकरण \दर्शन समाप्त होने के बाद भी उन ऊर्जा तरंगों का प्रभाव उस स्थान पर रहता है ,पर देवता के आने का कोई भौतिक चिन्ह नहीं होता |प्राकृतिक रूप से कोई देवता -देवी कोई भौतिक चिन्ह नहीं छोड़ते ,क्योकि उनका भौतिक शरीर होता ही नहीं |वह तो साधक की भावना के अनुरूप रूप धारण कर प्रत्यक्ष होते है |जो भौतिक चिन्ह छोड़ने की बात करता है वह झूठ बोलता है |
यह सब ऊर्जा का प्रत्यक्षीकरण और मानसिक ऊर्जा द्वारा उनका नियंत्रण है ,इसी के बल पर बिना मूर्ति पूजा या साकार आराधना के भी बहुत से धर्म-सम्प्रदाय ईश्वरीय ऊर्जा और कृपा प्राप्त करते रहते है ,गुरु को ईष्ट या ईश्वर मानने वाले को गुरु के दर्शन होते हैं ,निराकार शक्ति को मानने वाले को शक्ति का बिना रूप के भी आभास होता है ,क्योकि ऊर्जा का केन्द्रीकरण आसपास हो चूका होता है ,जिस रूप पर मानसिक शक्ति एकाग्र होती है शक्ति वाही भाव ग्रहण कर लेती है |,.......[एक चिंतन ].......................................................हर-हर महादेव
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