स्वाधिष्ठान-चक्र के जागरण पर जीवन बदल जाता है
=========================
मानव
शरीर में सात मुख्य चक्र होते हैं जो मूलाधार ,स्वाधिष्ठान ,मणिपुर ,अनाहत
,विशुद्ध ,आज्ञा और सहस्त्रार चक्र के नाम से जाने जाते हैं |इन सात चक्रों से
सैकड़ों छोटे चक्र सम्बन्धित होते हैं |सात चक्रों से मनुष्य के सात शरीर बनते हैं
|१- स्थूल शरीर
[फिजिकल बाडी] २- आकाश शरीर [ईथरिक बाडी] ३- सूक्ष्म शरीर [एस्ट्रल बाडी] ४- मनस शरीर [ मेंटल बाडी] ५- आत्म शरीर [स्पिरिचुअल बाडी] ६- ब्रह्म शरीर [कास्मिक बाडी] और ७- निर्वाण शरीर
[बाडिलेस बाडी] |सभी चक्र शरीर में भौतिक रूप से उपस्थित और दृश्य न होने
पर भी शरीर को प्रभावित करते हैं तथा इनका अस्तित्व सूक्ष्म शरीर से सम्बन्धित
होता है |इस सूक्ष्म शरीर को आप औरा या आभामंडल के रूप में समझ सकते हैं और यही
सूक्ष्म शरीर व्यक्ति का प्रेत शरीर होता है |सूक्ष्म शरीर व्यक्ति का ऊर्जा शरीर
या इलेक्ट्रानिक बाडी होता है जो हर कोशिका के उर्जा केन्द्रों से एक सूक्ष्म तंतु
द्वारा सम्बन्धित होता है और सब मिलकर व्यक्ति की मनुष्याकृति सूक्ष्म पारदर्शी
शरीर का निर्माण करते हैं |इस शरीर में ऊर्जा के मुख्य केन्द्रों को चक्रों के रूप
में परिभाषित किया जाता है तथा यह अप्रत्यक्ष रूप से शरीर को सदैव प्रभावित करते
रहते हैं |जन्म से इन चक्रों की सक्रियता और बल जन्मकालिक ग्रहों की ऊर्जा
रश्मियों के अनुसार निर्धारित होता है जबकि जन्म बाद इन्हें अधिक क्रियाशील
,बलशाली और सक्रीय कर ग्रह प्रभावों तक को नियंत्रित किया जा सकता है |
चक्रों का क्रमिक जागरण
कुंडलिनी जागरण कहलाता है जबकि मूलाधार में सोई मूल कुंडलिनी शक्ति का जागरण हो
क्रमशः उसके उर्ध्वगमन से चक्रों का जागरण होता है |इस प्रक्रिया के अतरिक्त भी
किसी चक्र विशेष को विभिन्न साधनाओं द्वारा जाग्रत कर उससे सम्बन्धित शक्तिया और
सिद्धिय प्राप्त की जा सकती हैं |महाविद्या साधनाओं अथवा गहन ध्यान की तकनिकी
विधियों द्वारा कुंडलिनी के अतरिक्त अलग से भी चक्रों का जागरण होता है और उससे
सम्बन्धित शक्तियाँ प्राप्त कर सफलता प्राप्त की जाती हैं |हमारा आज का विषय
स्वाधिष्ठान चक्र से सम्बन्धित है और हम आपको बताते हैं की इस चक्र के जागरण से
क्या क्या होता है |कैसे जागरण होता है यह एक तकनिकी विषय है जो गुरु गम्य है और
इसे यहाँ बताकर नहीं समझाया जा सकता अतः हम इसे किसी दुसरे लेख और विडिओ में प्रकाशित
करेंगे |आज देखते हैं इस चक्र की शक्तियों और सिद्धियों को |
स्वाधिष्ठानचक्र वह चक्र है जो लिंग मूल से चार अंगुल ऊपर स्थित है| स्वाधिष्ठान-चक्र में चक्र के छः दल हैं, जो पंखुणियाँ कहलाती हैं| यह चक्र सूर्य वर्ण का होता है जिसकी छः पंखुनियों पर स्वर्णिम वर्ण के छः अक्षर होते हैं जैसे- य, र, ल, ब म, भ । इस चक्र के अभीष्ट देवता इन्द्र नियत हैं।इस चक्र की मूल
शक्ति देवी दुर्गा हैं| जो साधक निरन्तर स्वांस-प्रस्वांस रूपी साधना में लगा रहता है, अथवा तंत्र द्वारा क्रमिक कुंडलिनी साधना चक्र मूलाधार और कुंडलिनी
जाग्रत कर उर्ध्वमुखी करता है उसकी कुण्डलिनी ऊर्ध्वमुखी होने के कारण मूलाधार से उठकर स्वाधिष्ठान में पहुँचकर विश्राम लेती है| तब इस स्थिति में वह साधक इन्द्र की सिद्धि प्राप्त कर लेता है अर्थात सिद्ध हो जाने पर सिद्ध इन्द्र के समान शरीर में इन्द्रियों के अभिमानी, देवताओं पर प्रशासन करने लगता है, इतना ही नहीं सिद्ध-पुरुष में प्रबल अहंकार ,जन्म लेता है और वह स्वयं भी अभिमानी होने लगता है जो उसके लिए बहुत ही खतरनाक होता है|
इस चक्र के जागरण पर व्यक्ति में चमत्कारिक
शक्तियों का उदय होता है |यदि थोड़ी सी भी असावधानी हुई तो चमत्कार और अहंकार दोनों में फँसकर बर्बाद होते देर नहीं लगती ,क्योंकि अहंकार वश यदि साधना बन्द हो गयी तो आगे का मार्ग तो रुक ही जाएगा, वर्तमान सिद्धि भी समाप्त होते देर नहीं लगती है , इसलिए सिद्धों को चाहिए कि सिद्धियाँ चाहे जितनी भी उच्च क्यों न हों, ,उसके चक्कर में नहीं फँसना चाहिए लक्ष्य प्राप्ति तक निरन्तर अपनी साधना पद्धति में उत्कट श्रद्धा और त्याग भाव से लगे रहना चाहिए|इंद्र से मूल तात्पर्य
यह है की इस चक्र की पूर्ण सिद्धि पर साधक इन्द्रियों पर नियंत्रण पा लेता है
किन्तु चक्र जागरण की अवस्था में दुर्गा की शक्तियों का उदय होता है जिससे चंचलता ,उग्रता
,अति साहस ,स्वभाव की तीव्रता ,जल्दबाजी उत्पन्न होती है जो शांत नहीं बैठने देती
और व्यक्ति अभिमानी हो गलतियाँ कर सकता है |इन पर नियंत्रण बाद ही वह इंद्र के
समान इन्द्रियों पर विजय पाता है और सर्वसुख सम्पन्न होता है |
इस चक्र के ध्यान से कामांगना काममोहित होकर उसकी सेवा करती है
अर्थात शरीर का तेज और आकर्षण ,व्यक्तित्व का प्रभाव इस प्रकार बढ़ता है कि स्त्रियाँ
और पुरुष आकर्षित होते हैं | जो कभी सुने न हों ऐसे शास्त्रों
का
रहस्य वह बयान कर सकता है। सर्व रोगों से विमुक्त होकर वह संसार में सुखरूप विचरता है। स्वाधिष्ठान चक्र का ध्यान करने वाला योगी या साधना करने वाला तंत्र साधक मृत्यु पर विजय प्राप्त करके अमर हो जाता है। अणिमादि सिद्धियाँ
प्राप्त कर उसके शरीर में वायु का संचार होता है जो सुषुम्णा नाड़ी में प्रविष्ट होता है। रस की वृद्धि होती है। सहस्रदल पद्म से जिस अमृत का स्राव होता है उसमें भी वृद्धि होती है।
कुंडलिनी साधना के
अंतर्गत नियमतः इस चक्र का जागरण मूलाधार चक्र के जागरण के बाद ही होता है किन्तु
योग और तंत्र में इसे सीधे भी जाग्रत करने के विधान हैं |सीधे जाग्रत करने पर
कुंडलिनी ,मूलाधार को पूर्ण जाग्रत किये बिना यहाँ तीव्र क्रियाशील होती है जिससे
उसका वास्तविक उर्ध्वगमन न होकर चक्र विशेष की क्रियाशीलता तक सक्रियता होती है
|इस स्थिति में लगातार रहने पर पूर्ण कुंडलिनी जागरण सम्भव है किन्तु अधिकतर साधक
यहाँ प्राप्त होने वाली सिद्धियों के मायाजाल में ही फंसे रह जाते हैं और भ्रम पाल
लेते हैं की वह सबकुछ पा चुके |योग द्वारा इस चक्र को ध्यान से जाग्रत किया जा
सकता है ,जबकि तंत्र द्वारा इसका जागरण दुर्गा ,बगलामुखी आदि की साधना से हो सकता
है |कुंडलिनी साधना और जागरण हो अथवा चक्र जागरण दोनों ही तकनिकी साधनाएं है जो
बिना गुरु के नहीं हो सकती |इनमे कदम कदम पर तकनीकियों का समावेश होता है जिनमे
ऊर्जा उत्पन्न करने और संभालने की तकनीकियाँ बताई जाती हैं जिससे व्यक्ति की साधना
सफल हो और वह पतित भी न हो |अक्सर बिना गुरु के चक्र साधनाएं करने वाले असफल भी
होते हैं और विभिन्न समस्याओं से भी ग्रस्त हो जाते हैं |सबसे अधिक आज्ञा चक्र की
साधनाएं करने वाले समस्याओं और दिक्कतों का सामना करते हैं ,इसके बाद मूलाधार और
स्वाधिष्ठान की बिना गुरु साधना करने वाले खुद को कष्टों और समस्याओं में घिरा
पाते हैं |अक्सर हमारे पास ऐसे लोगों के फोन आदि आते हैं जहाँ उन्होंने बिना गुरु
अथवा विभिन्न देवी -देवताओं को गुरु मान साधनाएं शुरू की होती हैं और जब भुगतने
लगते हैं तब फोन कर परामर्श मांगने लगते हैं |
स्वाधिष्ठान चक्र के जागरण
पर आलस्य ,हीन भावना ,आत्मविश्वास में कमी ,आत्मबल में कमी ,नकारात्मकता ,रोग-दोष
,कमजोरी ,मोटापा ,शारीरिक असंतुलन ,प्रभामंडल की नकारात्मकता ,भूत -प्रेत वायव्य
बाधाएं ,देवी -देवताओं के दोष ,शत्रु -विरोधी समाप्त अथवा नष्ट हो जाते हैं
|पाशविक प्रवृत्ति ,काम आदि पर विजय प्राप्त होता है |तेजस्विता ,वाणी का प्रभाव
,वाक्पटुता ,चंचलता ,क्रियाशीलता ,कर्मठता बढ़ जाती है |जो मिलता है प्रभावित होता
है ,जहाँ भी जाएँ ,जो भी कार्य करें सफलता बढ़ जाती है |ग्रहों के प्रभाव परिवर्तित
हो जाते हैं |किसी की नाकारात्म्कता ,रोग ,भूत -प्रेत हटाने की क्षमता आ जाती है
,वाक् सिद्धि हो जाती है और कही गयी बातें अपने आप सच होने लगती हैं |आशीर्वाद और
श्राप फलीभूत होते हैं |सभी क्षेत्रों में विजय मिलने लगती है |सुख सुविधाओं की
अपने आप उपलब्धी होने लगती है |जीवन का असंतुलन दूर होता है |इस चक्र पर लगातार
साधनारत रहने से पूर्ण कुंडलिनी जागरण सम्भव है किन्तु बिना गुरु तकनिकी ज्ञान
सम्भव नहीं अतः उपर उठने के लिए गुरु की आवश्यकता होगी |इस चक्र के जागरण पर
दुर्गा देवी की शक्तियाँ जाग्रत होती हैं अतः व्यक्ति में उग्रता ,कर्मठता ,चंचलता
,सक्रियता के साथ व्यक्ति में ऐसे तेज का उदय होता है की लोग आँख मिलाने में डरते
हैं |वाणी का प्रभाव इस प्रकार पड़ता है की न चाहने पर भी लोग उसे मानने और करने को
मजबूर हो जाते हैं |व्यक्ति जहाँ भी जाता है अथवा जो भी कार्य सोचता है उसमे सफलता
तथा विजय मिलती है |शत्रु समूह नष्ट हो जाता है और सभी प्रकार की नकारात्मक
शक्तियों का क्षय होता है
|...........................................................हर हर महादेव
No comments:
Post a Comment