Saturday, 3 August 2019

कुछ लोग बुद्धिमान और कुछ लोग बुद्धिहीन क्यों जन्म लेते हैं ?


किस स्तर के शरीर में आपकी आत्मा रहती है ,क्या आप जानते हैं ?
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         हर व्यक्ति जन्म लेने के कुछ दिनों बाद एक निश्चित मानसिक विकास से गुजरता है किन्तु कुछ लोगों का मानसिक विकास तीव्र होता है कुछ लोगों का मानसिक विकास धीमा होता है और कुछ लोगों का मानसिक विकास अत्यधिक मंद होता है की वह २५ वर्ष की उम्र में भी 5 -6 वर्ष के बच्चे की तरह की बुद्धि के होते हैं ,भले इन सबको एक सामान ही माहौल क्यों न मिले |कभी कभी एक ही समय पर जन्मे बच्चों यहाँ तक की जुड़वाँ बच्चों के भी मानसिक स्तर और रुचियों में बड़ी भिन्नता पायी जाती है |क्या आपने कभी सोचा है की यह सब क्यों होता है |विज्ञान अनेक सिद्धांत दे सकता है किन्तु ऐसा न हो इसका कोई उपाय उसके पास नहीं है क्योंकि वास्तव में विज्ञान यह रहस्य जानता ही नहीं की ऐसा क्यों होता है |ज्योतिषी इसके सम्बन्ध में ग्रहों ,नक्षत्रों की स्थिति स्थान अनुसार भिन्न बताकर ,या जन्म समय में सेकेण्ड का अंतर कहकर या देश -काल परिस्थिति की बात कहकर इसे परिभाषित करने की कोशिश करता है किन्तु यहाँ भी संतोषजनक उत्तर नहीं है |हम आपको इसका रहस्य बताते हैं अपने इस विडिओ में और अपने इस चैनल अलौकिक शक्तियां पर |इसका सम्बन्ध आपके अवचेतन और आपके शरीर से जुड़े सात ऊर्जा शरीरों से होता है |यह सातो शरीर सभी में होते हैं किन्तु हर व्यक्ति एक निश्चित शरीर की अवस्था में जन्म लेता है और उसके नीचे के शरीरों के गुणों के साथ उस शरीर के गुण उसमें १४ -१५ वर्ष की उम्र तक विकसित होते हैं |ध्यान से पूरा लेख और विडिओ देखिये ,आप उस रहस्य को जानने जा रहे जो दुनियां के बहुत कम लोग जानते हैं ,इसलिए ध्यान से पूरा लेख और विडिओ अंत तक समझें |
          मानव शरीर एक कम्प्यूटर के समान ही रहस्यपूर्ण यन्त्र है ,इसे ठीक से समझने के लिए मानव के विभिन्न आयामों को समझना आवश्यक है |बाहरी रूप से जो शरीर हमें दिखाई देता है वास्तव में वह शरीर का केवल दस प्रतिशत भाग होता है |विद्वानों ने शरीर के सात स्तरों की बात की है -
- स्थूल शरीर [फिजिकल बाडी] २- आकाश शरीर [ईथरिक बाडी]- सूक्ष्म शरीर [एस्ट्रल बाडी]- मनस शरीर [ मेंटल बाडी] ५- आत्म शरीर [स्पिरिचुअल बाडी]- ब्रह्म शरीर [कास्मिक बाडी] और ७- निर्वाण शरीर [बाडिलेस बाडी] |अब आप देखिये हमारे सौर मंडल में सात ही ग्रह भी मुख्य होते हैं ज्योतिष के अनुसार ,जबकि दो अदृश्य ग्रह माने जाते हैं |हमारे शरीर में सात ही चक्र मुख्य माने जाते हैं ,दो चक्र को और स्थान दिया जाता है इनके बीच अर्थात सात मुख्य ग्रह ,सात मुख्य चक्र और सात शरीर मानव के |कुछ तो सम्बन्ध है इनका |कुंडलिनी जागरण के क्रम में क्रमशः सातो चक्रों के जागरण से इन सात शरीर की अवस्था में व्यक्ति पहुँचता है और सातो ग्रहों के प्रभाव भी प्रभावित होते हैं |जन्मकालिक मुख्य ग्रह के अनुसार एक विशेष चक्र भी जन्म से ही क्रियाशील होता है और व्यक्ति के सप्त शरीर में से एक शरीर विशेष के गुण के अनुसार भी व्यक्ति का व्यक्तित्व और मानसिक स्थिति होती है |
       सनातन सिद्धांत और सोच के अनुसार मनस शास्त्रियों का कहना है की व्यक्तियों के जीवन में मानव शरीर के यह सातों स्तर उत्तरोत्तर विकसित होते हैं, अर्थात क्रमशः उम्र और समय के अनुसार इनका विकास होता है |सामान्य जन इसे नहीं समझ पाते ,यहाँ तक की साधक और कुंडलिनी के जानकार भी इसे व्यावहारिक स्तर पर न देखते हुए मात्र साधना से ही इनकी प्राप्ति और समझने की बात करते हैं |व्यावहारिक दृष्टिकोण की बात करें तो मनस शास्त्रियों के अनुसार सामान्य योग व्यवहार में रहते हुए एक शरीर का विकास लगभग सात वर्ष में पूरा हो जाना चाहिए और लगभग ५० वर्ष की आयु होने तक व्यक्ति सातवें शरीर का विकास करके विदेह [बाडीलेस ]अवस्था में पहुँच जाना चाहिए |अर्थात जन्म से ७ वर्ष तक स्थूल शरीर ,७ से १४ वर्ष तक आकाश शरीर ,१४ से २१ वर्ष तक सूक्ष्म शरीर ,२१ से २८ वर्ष तक मनस शरीर ,२८ से ३५ वर्ष तक आत्म शरीर ,३५ से ४२ वर्ष तक ब्रह्म शरीर और ४२ से ४९ -५० वर्ष तक निर्वाण शरीर की अवस्था में व्यक्ति को होना चाहिए |ध्यान दीजिये यहाँ शरीर यथावत रहता है मात्र मानसिक अवस्था इन शरीर के अनुसार पहुंचनी चाहिए |यह सनातन नियमों के अनुसार व्यक्ति की नियमित दिनचर्या के अनुसार निर्धारित किया गया है |
          राजा जनक को विदेह और जानकी को वैदेही भी कहते हैं ,इसका अर्थ यह होता है की राजा जनक विदेह अवस्था को प्राप्त थे |इस विदेह अथवा बाडिलेस अवस्था का अर्थ यह नहीं की व्यक्ति का भौतिक शरीर नहीं रहेगा अथवा व्यक्ति कोई भौतिक कर्म नहीं करेगा |इसका अर्थ केवल इतना है की वह सारे कार्य इस ढंग से करना सीख लेगा की उसकी आत्मा पर कोई कर्म का बंधन न लग पाए ,अर्थात आत्मा निर्लेष रहे |आत्मा प्रायः उस अवस्था में निर्लेष रहती है जब वह शरीर रहित होती है |यह एक मेटाफिजिकल सिद्धांत है |यह सूत्र हमारे सनातन दर्शन में जीवन के लिए बनाए गए थे और वैदिक काल में इसका पालन होता था |जीवन का ढंग ऐसा था की इसके अनुसार जीवन चले |
           इस सूत्र के अनुसार ,जीवन के प्रथम सात वर्ष में बच्चे का स्थूल शरीर पूरा होता है जैसे पशु का शरीर विकास को प्राप्त होता है |इस अवस्था में व्यक्ति में अनुकरण तथा नकल करने की प्रवृत्ति रहती है |प्रायः यह प्रवृत्ति पशुओं की भी होती है |कुछ ऐसे व्यक्ति भी होते हैं जिनकी बुद्धि इस भाव से उपर नहीं उठ पाती और पशुवत जीवन जीते रह जाते हैं |इसे हम योग की भाषा में कहते हैं की व्यक्ति प्रथम शरीर से उपर नहीं उठा |यह स्तर व्यक्ति के भौतिक शरीर का होता है और इस स्तर का व्यक्ति केवल भोजन -शयन में रूचि रखने वाला ,शारीरिक सुख चाहने वाला ,दूसरों के अनुसार चलने वाला होता है |
         द्वितीय शरीर अर्थात आकाश शरीर में भावनाओं का उदय होता है अतः इसे भाव शरीर भी कहते हैं |प्रेम और आत्मीयता वाली समझ विकसित होने से व्यक्ति सांसारिक सम्बन्धों को समझने लगता है |इस आत्मीयता के कारण ही व्यक्ति में पशु प्रवृत्ति कम होकर मनुष्य प्रवृत्ति का विकास होता है |चौदह वर्ष का होते होते वह सेक्स के भाव को भी समझने लग जाता है |बहुत से लोगों के चक्र यहीं तक विकसित हो पाते हैं और वे पूरे जीवन भर घोर संसारी बने रहते हैं |आकाश शरीर की स्थिति वाले लोग सदैव भौतिकता की ओर भागते हुए इसी में लिप्त रहते हैं |इनके लिए भोग विलाश ,भोजन ,शयन सुख ,भावना में बहने वाले ,कल्पना में जीने वाले ,अक्सर गलतियाँ करने वाले ,कम आत्मविश्वास वाले होते हैं | [पंडित जितेन्द्र मिश्र ]
          तृतीय शरीर सूक्ष्म शरीर कहलाता है |सामान्यतः इसकी विकास की अवधि २१ वर्ष तक है |इस अवधि में बुद्धि में विचार और तर्क की क्षमता का विकास हो जाने के कारण व्यक्ति बौद्धिक रूप से सक्षम हो जाता है और व्यक्ति में सांस्कृतिक गुण विकसित हो जाते हैं |सभ्यता भी आ जाती है और शिक्षा के आधार पर समझ भी बढ़ जाती है |इस स्तर के लोग जीवन और जन्म -मृत्यु को ही सब कुछ समझते हैं |भौतिक रूप से सभी सुखों की चाह भी होती है और मृत्यु की वास्तविकता को भी समझते हैं |जीवन सुखी बनाने की सामर्थ्य और बुद्धि भी होती है |इस स्तर पर आध्यात्मिक विकास न्यून होता है और कष्ट पर व्यक्ति दूसरों की ओर देखता है |अक्सर इस स्तर पर या तो व्यक्ति नास्तिक होता है या भाग्यवादी |नास्तिक कर्म को प्रमुखता देते हैं और भाग्यवादी भाग्य को ही सबकुछ मानते हैं |
             चतुर्थ शरीर अगले सात वर्ष तक विकसित हो जाना चाहिए |अर्थात २८ या ३० वर्ष तक इस शरीर का विकास हो जाना चाहिए |इसे मनस शरीर कहते हैं |इस स्तर पर मन प्रधान होता है ,अतः व्यक्ति ललित कलाओं ,संगीत ,साहित्य ,चित्र कारिता काव्य आदि में रूचि लेने लगता है |टेलीपैथी ,सम्मोहन यहाँ तक की कुंडलिनी भी इसी स्तर तक विकसित हुए व्यक्ति को रास आती है ,चूंकि यह स्तर व्यक्ति को कल्पना करने की ऐसी शक्ति देता है की वह पशुओं से श्रेष्ठ बन जाता है |स्वर्ग नर्क की कल्पना भी इसी स्तर में आती है |व्यक्ति आध्यात्मिक जगत को समझने लगता है और ब्रह्मांडीय सूत्रों में रूचि जाग्रत होती है |वह अधिकतम ज्ञान पाना चाहता है |हर क्रिया को समझने की कोशिस करता है |गहन साधना में रूचि इस शरीर की स्थिति में जाग्रत होती है और व्यक्ति यहाँ कुंडलिनी जाग्रत कर सकता है |
            पांचवां शरीर आध्यात्मिक होता है |इस स्तर पर पहुंचे व्यक्ति को आत्मा का अनुभव हो पाता है |यदि चौथे स्तर पर कुंडलिनी जाग्रत हो जाए तो इस शरीर का अनुभव हो पाता है |यदि नियम संयम से व्यक्ति का विकास होता रहे तो लगभग 35 वर्ष की आयु तक व्यक्ति इस स्तर पर पहुँच जाता है |यद्यपि आज के आधुनिक जीवन शैली में सामान्य जन के लिए यह बेहद कठिन है |मोक्ष का अनुभव इस स्तर पर हो सकता है ,मुक्ति का अनुभव हो जाता है |
        छठवां है ब्रह्म शरीर |इस स्तर पर व्यक्ति अहम ब्रह्मास्मि का अनुभव कर पाता है |ऐसी कास्मिक बाडी सामान्यतः अगले सात वर्ष में विकसित हो जानी चाहिए |सातवाँ शरीर निर्वाण शरीर कहलाता है जो की विदेह अवस्था है |भगवान् बुद्ध ने इस स्थिति को ही निर्वाण कहा है |यहाँ अहं और ब्रह्म दोनों ही मिट जाते हैं |मैं और तू दोनों के ही न रहने से यह स्थिति परम शून्य की बन जाती है |
इन सातों शरीरों का क्रमिक विकास बहुत से लोगों में जन्म जन्म चलता रहता है |कोई प्रथम शरीर के साथ जन्म लेता है तो कोई चौथे स्तर के साथ |करोड़ों में कोई एक छठवें स्तर के साथ जन्म लेता है जो जन्म से ही विरक्त हो जाता है |जैसे बाबा कीनाराम ,तेलग स्वामी ,स्वामी स्वरूपानंद ,विवेकानंद जी |जैसे स्तर के साथ व्यक्ति का जन्म होता है वह चौदह वर्ष का होते होते व्यक्ति में प्रकट होने लगता है |उसकी सोच ,संसार को देखने का दृष्टिकोण ,व्यवहार ,समझ आदि में सामान्य व्यक्ति की अपेक्षा अंतर देखने को मिलता है |
            इसको हम आपको थोडा और विस्तार से समझाते हैं |सभी की शुरुआत तो स्थूल शरीर से ही हुई है किन्तु कोई मानसिक और आध्यात्मिक उन्नति कर निर्वाण शरीर तक पहुच जाता है और कोई स्थूल शरीर की मानसिक अवस्था में ही रह जाता है जीवन भर |यदि मान लीजिये किसी व्यक्ति ने अपने जीवन में सूक्ष्म शरीर की स्थिति पाई है और उसके ऊपर बड़े कर्म बंधन नहीं बनते ,किसी का श्राप आदि उसके जन्म को प्रभावित नहीं करते तथा वह अपनी आयु पूर्ण कर मृत्यु को प्राप्त होता है तो वह दोबारा जन्म लेता है और १४ वर्ष की आयु होते होते उसकी मानसिक अवस्था सूक्ष्म शरीर की मानसिक अवस्था जैसी हो जायेगी ,जैसे वह बौद्धिक होगा ,समझदार हो जाएगा ,तार्किक और सांस्कृतिक गुण वाला होगा अर्थात पूर्ण विकसित मानव होगा |अब वह यदि यहाँ से अपना विकास करता है तो उसके लिए निर्वाण शरीर तक की यात्रा स्थूल शरीर और आकाश शरीर वाले से आसान होगी |वह जहाँ तक की यात्रा करेगा और कर्म बंधन को नियत्रित रखेगा तो वह अगले जन्म में आज पहुंची हुई आवस्था में जन्म लेगा और १४ वर्ष की आयु तक उसमे वह गुण विकसित हो जायेंगे |यह क्रमिक विकास है |यदि कोई अपने कर्म से सूक्ष्म शरीर की अवस्था में जन्म लेकर भी पशुवत स्थूल शरीर के भोग सुख में ही झूलता रह जाता है तो वह नीचे जाकर स्थूल शरीर की अवस्था भी प्राप्त कर सकता है |यह आध्यात्मिक विज्ञान है जिसे अच्छे अच्छे साधक ,ज्ञानी ,कुंडलिनी साधक तक नहीं जानते ,नहीं समझते |इसलिए व्यक्ति को अपने कर्मों को नियंत्रित रखना चाहिए |धन्यवाद .............................................हर हर महादेव

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